– वासुदेव प्रजापति
अब तक चारों अंकों में ज्ञान व अज्ञान कों समझाया गया है, ज्ञान की महिमा बतलाई गयी है तथा ज्ञान के विविध स्वरूपों से परिचित करवाया गया है। आज के अंक में हम ज्ञानार्जन एवं उसके साधनों की जानकारी प्राप्त करेंगे।
ज्ञानार्जन का अर्थ :
‘ज्ञानार्जन’ शब्द, दो शब्दों के मेल से बना है, ज्ञान तथा अर्जन। ज्ञान का अर्थ हम पहले अंक में जान चुके है और अर्जन का अर्थ प्राप्त करना। इसलिए ज्ञानार्जन का अर्थ हुआ, ज्ञान प्राप्त करना। ऐसे ही एक अन्य शब्द से इसे समझेंगे। जैसे शब्द है ‘धनार्जन’ धन का अर्जन करना अर्थात् धन प्राप्त करना। धन का मतलब रुपये-पैसे से है। अतः धनार्जन का अर्थ हुआ पैसे प्राप्त करना। जैसे पैसे प्राप्त करने के लिए कमाना पड़ता है, वैसे ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए पढ़ना पढ़ता है। पढ़ने से ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान होने से हमारा सम्बन्ध परमात्मा से जुड़ता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ज्ञानार्जन सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। ज्ञानार्जन के बिना व्यक्ति का जीवन निरर्थक हो जाता है।
ज्ञानार्जन और गलत धारणाएँ :
आजकल ज्ञानार्जन के बारे में अधिकांश लोगों के मनों में कुछ गलत धारणाएँ बैठ गई हैं। लोग यह मानकर चलते है कि अधिक शुल्क वाले विद्यालयों में अच्छी पढ़ाई होती है। घर में पढ़ने की सुविधाएँ होने से अधिक पढ़ा जाता है। पढ़ने के लिए साधन-सामग्री होने से अधिक समझ में आता है। प्रतिष्ठित परिवार के बालक गरीब बालक की तुलना में ज्यादा पढ़ते है, इत्यादि। अर्थात् वे ज्ञानार्जन को पैसों से, सुविधाओं से, साधन-सामग्री से और प्रतिष्ठा से जोड़ते हैं। ज्ञानार्जन को इनसे जोड़ने का विचार उचित नहीं है क्योंकि ज्ञानार्जन पैसों से या सुविधा से या साधन-सामग्री से नहीं होता। ज्ञानार्जन होता है बहिःकरण व अन्त करण से। आओ! हम जाने कि ये बहिःकरण व अन्तःकरण क्या हैं?
ज्ञानार्जन के साधन :
ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को जन्म के साथ ही ज्ञान प्राप्त करने के साधन दिये हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास जन्म से ही ये साधन उपलब्ध हैं। चाहे वह गरीब है या अमीर, चाहे वह ब्राह्मण है या शूद्र, चाहे वह हिन्दू है या मुसलमान सबकों ये साधन बिना किसी भेदभाव के समान मात्रा में मिले हुए हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।
ज्ञानार्जन के साधन दो हैं – 1 बहिःकरण, 2 अन्तःकरण, ये दोनों शब्द संस्कृत भाषा के हैं। संस्कृत शब्द करण का अर्थ है, साधन। इसलिए बहिःकरण का अर्थ है हमारे शरीर के बाहरी साधन और अन्तःकरण का अर्थ है हमारे शरीर के अन्दर के साधन या भीतरी साधन।
बहिकरण :
ज्ञान प्राप्त करने के वे साधन जो हमारे शरीर के बाहर स्थित हैं, जिन्हें हम देख सकते हैं, उन्हें बहिःकरण कहते हैं। बहिःकरण दो हैं, कर्मेन्द्रियाँ एवं ज्ञानेन्द्रियाँ।
कर्मेन्द्रिययाँ : कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं – हाथ, पैर, वाणी, जननेन्द्रिय व उपस्थ। इन पाँचों कर्मेन्द्रियों में हाथ, पैर व वाणी की ज्ञानार्जन में प्रमुख भूमिका है। अतः यहाँ हम इन तीनों साधनों का ही ज्ञानार्जन की दृष्टि से विचार करेंगे।
हाथ : ये हमारे शरीर के प्रमुख अंग हैं। हाथ अनेक काम करते हैं। जैसे – हाथ पकड़ते हैं, हाथ छोड़ते हैं, हाथ फेंकते हैं, हाथ झेलते हैं, हाथ उछालते हैं, हाथ खीचतें हैं, हाथ दबाते हैं, हाथ धकेलते हैं। हाथों से ही हम भोजन करते हैं। और हाथों से ही लिखते हैं और चित्र बनाते हैं। हाथ न जाने कितने प्रकार के काम करते हैं। यदि हम इन कार्यों की सूचि बनायेंगे तो वह इतनी लम्बी बनेगी कि स्वयं हमें आश्चर्य होगा। ये सभी काम हम हाथों से करके ही सीखते हैं, इसलिए हाथ ज्ञान प्राप्त करने के मुख्य साधन हैं।
पैर : हाथों के समान ही पैर भी अनेक काम करते हैं। पैर चलते हैं, पैर दौड़ते है, पैर कूदते हैं, पैर पहाड़ों पर चढ़ते हैं, पैर साइकिल चलाते हैं, पैर फुटबॉल खेलते हैं, और पैरों से ही हम नाँचते हैं। इनके अतिरिक्त भी पैर अनेक काम करते हैं। पैरों से हाने वाले कामों से हम बहुत-कुछ सीखते हैं। अतः पैर भी ज्ञानार्जन के साधन हैं।
वाणी : वाणी भी एक कर्मेन्द्रिय है। जैसे हाथ और पैर पकड़ने व चलने की क्रिया करते हैं, वैसे ही वाणी बोलने की क्रिया करती है। बोलना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक क्रिया है। हम अपने विचारों, भावों एवं इच्छाओं का बोलकर ही अभिव्यक्त करते हैं। वाणी केवल बोलती ही नहीं, वह डांटती है, पुचकारती है, पुकारती है, आज्ञा देती है, नारे लगाती है, और मधुर स्वर में गाना भी गाती है। इस प्रकार वाणी भी अनेक काम करती है, वाणी के उन सभी कामों से हम सीखते हैं। अतः वाणी भी ज्ञानार्जन का साधन है।
कर्मेन्द्रियों के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप क्रियात्मक है। अर्थात् कर्मेन्द्रियाँ विविध क्रियाएँ करती हैं, उन क्रियाओं से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए बाल्यावस्था की शिक्षा क्रिया आधारित शिक्षा होनी अपेक्षित है।
आओ! हम कमेंन्द्रियों की कुशलता वाली लघुकथा का महत्त्व समझें-
कर्मेन्द्रिर्यों का कमाल
यह कथा युनान देश की है। एक बेसहारा निर्धन बालक था। वह दिनभर कठोर परिश्रम करता, जंगल में लकड़ियाँ काटता, फिर उनका गट्ठर बनाता और शाम को उसे बाजार में बेचता। एक दिन एक सज्जन व्यक्ति उस बाजार से जा रहा था। उसने देखा कि उस बालक का गट्ठर बहुत ही कलात्मक ढंग से बँधा हुआ है।
उस सज्जन ने लड़के से पूछा क्या यह गट्ठर तुमने बाँधा है? लड़के ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया – ‘जी हाँ श्रीमान् जी! मैं दिनभर लकड़ी काटता हूँ स्वयं गट्ठर बाँधता हूँ और रोज बाजार में बेचता हूँ।’
उस व्यक्ति ने उससे कहा – ‘क्या तुम इसे खोलकर फिर से ऐसा ही बाँध सकते हो?’ जी हाँ, यह देखिए। इतना कहकर उसने वह गट्ठर फट से खोला और लग गया फिर से उसे बाँधने। वे सज्जन बड़े आश्चर्य के साथ उसे देख रहे थे। उसके दोनों हाथों की अंगुलियाँ फटाफट चल रही है। छोटी लकड़ियों को एक तरफ कर रहा है। बड़ी लकड़ियों को बाहर की ओर रख रहा है। उन सबको व्यवस्थित कर बड़े ही सुन्दर ढंग से जमा कर गट्ठर बना रहा है। इस प्रकार बड़ी फुर्ति के साथ उसने पहले से भी अधिक कलात्मक गट्ठर बाँध कर दिखा दिया।
उन सज्जन पर इस लड़के की कर्म कुशलता का बहुत प्रभाव पड़ा। क्योंकि उसने अपनी कर्मेन्द्रियों के कमाल से अपनी कलात्मक प्रतिभा का परिचय दिया था। उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन सज्जन ने उस से कहा – क्या तुम मेरे साथ चलोगे? मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा, तुम्हारा सारा खर्चा में उठाऊंगा। बालक ने कुछ देर तक विचार किया, फिर उसने अपनी स्वीकृति दे दी।
थोड़े समय में ही उस बालक ने अपनी लगन और कर्म-कुशलता से उच्च शिक्षा आत्मसात कर ली। बड़ा होने पर यह बालक युनान का महान विद्वान पाईथागोरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ। और वह सज्जन व्यक्ति जिसने उस बालक की कलात्मक प्रतिभा में छिपे महानता के बीज को पहचान कर पल्लवित किया, वे युनान के तत्वज्ञानी डेमोक्रीट्स थे।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
Source : Rashtriya Shiksha