– वासुदेव प्रजापति
भारतीय शिक्षा व्यवस्था आज की शिक्षा व्यवस्था से अनेक बातों में श्रेष्ठ है। भारत में शिक्षा का विचार अर्थ के साथ जोड़कर नहीं किया गया। जबकि आज बिना अर्थ के शिक्षा का विचार ही नहीं होता। आज की शिक्षा व्यवस्था पूर्णतया अर्थ पर निर्भर है। भारत में शिक्षा सदैव से अर्थ निरपेक्ष रही है, क्यों? इसलिए कि ज्ञान अर्थ से श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ को कभी भी कनिष्ठ से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अर्थात् पैसों से ज्ञान नहीं मिलता, ज्ञान तो श्रेष्ठ ज्ञानी गुरु से ही मिलता है।
गुरु कभी ज्ञान नहीं बेचता, वह तो ज्ञानदान करता है। ज्ञान बेचना तो हमारे देश में हेय माना जाता था। जबसे शिक्षा बाजारवाद से जोड़ दी गई है, तब से वह भी बेचने व खरीदने की वस्तु बन गई है। जब से शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनी है, तब से शिक्षा व शिक्षक दोनों की प्रतिष्ठा गिर गई है। हम शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाकर पुनः उसे प्रतिष्ठा दिला सकते हैं। अर्थ निरपेक्ष भारतीय शिक्षा की एक उत्तम व्यवस्था है – गुरु दक्षिणा। आज हम गुरु दक्षिणा के मूलभूत सिद्धांतों को समझेंगे।
गुरु दक्षिणा एक श्रेष्ठ संकल्पना है
जब शिष्य अपना अध्ययन पूर्ण कर घर लौटता है, तब वह जाते समय गुरु को दक्षिणा अर्पित करता है। दक्षिणा अर्थात् द्रव्य या पैसा, जो मुख्यतया नकद राशि के रूप में होता है। कभी-कभी नकद राशि के स्थान पर वस्तुएं भी दी जातीं हैं, इसे ही गुरु दक्षिणा कहा जाता है। गुरु दक्षिणा को सही अर्थ में समझने के लिए कुछ और बातों को जानना भी आवश्यक हैं, जो अधोलिखित हैं –
- गुरु दक्षिणा विद्याध्ययन पूर्ण कर लेने के बाद ही दी जाती है। यह प्रवेश लेने से पहले नहीं दी जाती।
- यह विद्याध्ययन का शुल्क नहीं है। गुरु दक्षिणा कभी भी प्रवेश से पहले निश्चित नहीं की जाती।
- गुरु स्वयं गुरु दक्षिणा नहीं मांगते, शिष्य स्वेच्छा से देता है। गुरु दक्षिणा देना या नहीं देना यह भी शिष्य ही निश्चित करता है। यह शिष्य के लिए ऐच्छिक है, अनिवार्य नहीं।
- गुरु दक्षिणा की गणना इस आधार पर नहीं होती कि गुरु ने उसे कितना व कैसा पढ़ाया है? शिष्य अपनी क्षमता के अनुसार गुरु दक्षिणा देता है। कमजोर आर्थिक स्थिति वाला कम और अधिक वाला अधिक देता है।
भारत की ऐसी श्रेष्ठ संकल्पना है, गुरु दक्षिणा। आओ! इसके अन्य पहलुओं को भी समझें।
गुरु दक्षिणा गुरुऋण से उऋण होना है
गुरु दक्षिणा को शिष्य अपनी देनदारी नहीं समझता, वह इसे अपना कर्त्तव्य मानता है। गुरु दक्षिणा ऐच्छिक होते हुए भी शिष्य अपना अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् गुरु दक्षिणा अर्पित करता ही है। गुरु दक्षिणा अर्पित न करने का भाव कभी उसके मन में नहीं आता। शिष्य किसी कारण से गुरु दक्षिणा नहीं दे पाता है तो वह इसे नैतिक तथा सामाजिक अपराध मानता है, और इस अपराध से शीघ्र मुक्त होने का प्रयत्न करता है। विशेष संयोग के समय शिष्य स्वयं गुरु से उनकी अपेक्षा पूछता है, तब गुरु आवश्यकता अनुसार अपेक्षा बताता भी है। गुरु यह अपेक्षा भी शिष्य की क्षमता को ध्यान में रखकर ही बताता है। शिष्य के द्वारा स्वयं पूछने के पश्चात् और गुरु के द्वारा अपेक्षा व्यक्त करने के बाद यदि शिष्य वह अपेक्षा पूर्ण नहीं करता तो शिष्य के लिए यह बात मरणतुल्य हो जाती है।
शिष्य के मन में गुरु दक्षिणा अर्पित करते समय मुख्य भाव कृतज्ञता व्यक्त करना ही होता है। गुरु से मुझे जो ज्ञान मिला है, उसे मूल्य में नहीं आंका जा सकता, वह तो अमूल्य है। गुरु से प्राप्त ज्ञान तो गुरु का मुझ पर ऋण है, और मुझे गुरु ऋण से उऋण होना है। गुरु ऋण से उऋण होने के भाव से ही वह अपनी सामर्थ्य से भी अधिक गुरु दक्षिणा अर्पित करता है। यद्यपि गुरु दक्षिणा गुरु का अधिकार नहीं है तथापि शिष्य इसे अपना कर्त्तव्य मानता है। यही गुरु दक्षिणा का वैशिष्ट्य है।
गुरु दक्षिणा से सम्पूर्ण आश्रम का निर्वाह
गुरु दक्षिणा के आर्थिक पक्ष का व्यावसायिक बुद्धि से विचार करने पर सबको यही लगता है कि गुरु दक्षिणा से गुरु अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। व्यावसायिक बुद्धि से ऊपर उठकर जब इस पर विचार होता है, तब यह बात ध्यान में आती है कि गुरु दक्षिणा से गुरु व गुरु के परिवार मात्र का ही निर्वाह नहीं होता अपितु सम्पूर्ण आश्रम या गुरुकुल का निर्वाह होता है। गुरु सम्पूर्ण आश्रम को अपना कुटुम्ब मानता है और प्रत्येक शिष्य को अपना मानस पुत्र स्वीकारता है। जहां परिवार भाव होता है, वहां व्यवसाय भाव नहीं टिकता। हमारे यहां सभी आश्रम और गुरुकुल परिवार भाव से ही चलते रहे हैं। यही गुरु दक्षिणा के आर्थिक पक्ष का निष्कर्ष है।
गुरु दक्षिणा का नियमन शिष्य करता है
गुरु दक्षिणा गुरु को मिलती है, इसलिए उस पर गुरु का नियंत्रण होना स्वाभाविक है, किन्तु ऐसा नहीं होता। गुरु दक्षिणा का नियमन और सूत्र संचालन गुरु के हाथ में न रहकर शिष्य के हाथ में रहता है। गुरु दक्षिणा के दो ही पक्ष हैं, देने वाला शिष्य और लेने वाला गुरु। इनके बीच में कोई तीसरा पक्ष नहीं होता। इसलिए गुरु दक्षिणा के नियमन व संचालन में भी कोई तीसरा पक्ष नहीं है। जबकि आज की व्यवस्था में तीसरा पक्ष, संचालक समिति या सरकार ही उसका संचालन करती है। किन्तु गुरु दक्षिणा का संचालन पूर्णतया शिष्य के हाथ में ही रहता है। गुरु दक्षिणा की यह व्यवस्था अर्थ संचालन का एक प्रमुख नैतिक सूत्र है।
गुरु दक्षिणा नैतिक धर्म पर टिकी हुई है
हम यह जानते हैं कि प्रत्येक व्यवस्था किसी नियम, किसी कानून या किसी अनिवार्य शर्त पर चलती है, परन्तु गुरु दक्षिणा इसका अपवाद है। यह किसी नियम, कानून या शर्त पर टिकी हुई नहीं है, यह तो नीति धर्म पर टिकी हुई है। गुरु दक्षिणा पर ही गुरु का जीवन निर्वाह निर्भर है, फिर भी गुरु इसकी तनिक भी चिंता नहीं करते। चिन्ता न करने से भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि कायदा-कानून, नियम या शर्त से भी ऊपर कोई तो है, जो इनसे अधिक मूल्यवान है। वह है, नैतिक धर्म। विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षा न रखना जैसे नैतिक मूल्यों के सामने नियम या कानून कोई मूल्य नहीं रखते। इसलिए गुरु दक्षिणा जैसी श्रेष्ठ व्यवस्था नैतिक धर्म पर टिकी हुई है।
गुरु दक्षिणा श्रेष्ठ समाज में ही संभव है
मनुष्य समाज में सदवृत्ति और दुष्वृत्ति दोनों ही मिलती हैं। जो समाज अपने लोगों की दुष्वृत्तियों का परिमार्जन कर उनकी सदवृत्तियों में वृद्धि करता है, वह समाज संस्कारित व श्रेष्ठ समाज बन जाता है। जिस समाज में स्वार्थ, लोलुपता, अप्रामाणिकता, कृतघ्नता व भ्रष्टाचार जैसी दुष्प्रवृत्तियों का बोलबाला होता है, वह समाज असंस्कारी ही रहता है। असंस्कारी समाज में सदैव कायदा-कानून भंग होते हैं, परिणामस्वरूप दण्ड आदि की व्यवस्थाएं करनी पड़ती हैं। इसलिए श्रेष्ठ समाज में ही श्रेष्ठ व्यवस्थाएं होती हैं। यही कारण है कि गुरु दक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ तथा संस्कारित समाज में ही संभव है।
गुरु दक्षिणा की पुनर्प्रतिष्ठा आवश्यक है
आज के समय में ऐसी व्यवस्थाओं को पुनः लाने की बात करना पन्द्रहवीं शताब्दी में ले जाना, माना जाता है। अथवा इसे अव्यावहारिक बताकर नकार दिया जाता है, और तर्क दिये जाते हैं कि किसी भी प्रकार की अनिवार्यता नहीं होगी तो कोई पढ़ने नहीं आयेगा, कोई भी शुल्क नहीं देगा या पहले से वेतन तय नहीं होगा तो कोई पढ़ायेगा ही नहीं इत्यादि। इन सभी तर्कों के मूल में अर्थ ही प्रमुख है। जबकि शिक्षा में प्रमुखता ज्ञान की ही रहनी चाहिए, क्योंकि अर्थ से ज्ञान श्रेष्ठ व पवित्र है। शिक्षा के साथ जो अर्थ का सम्बन्ध जोड़ा गया है, वही गलत है।
हमें शिक्षा को पुनः अर्थनिरपेक्ष बनाना है। अर्थनिरपेक्ष शिक्षा में गुरु दक्षिणा एक प्रमुख साधन है। व्यावसायिक बुद्धि से विचार करना तो स्वार्थ साधना है। आज भी यह दुनिया कायदा-कानून या न्याय व दंड पर कम तथा मनुष्य में बची हुई अच्छाई के आधार पर अधिक चल रही है। आज श्रेष्ठता व संस्कारिता के आधार पर चलने वाली व्यवस्थाओं को अधिक पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज बनाने के लिए स्वार्थी लोगों की नहीं अपितु श्रेष्ठ व संस्कारी लोगों की आवश्यकता होती है। ऐसे श्रेष्ठ संस्कारी लोग गुरु दक्षिणा जैसी व्यवस्थाओं से निर्मित होते हैं। इसलिए भी गुरु दक्षिणा की पुनर्प्रतिष्ठा श्रेष्ठ समाज की अनिवार्यता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती की गुरु दक्षिणा
स्वामी दयानन्द सरस्वती को सम्पूर्ण देश जानता है। उन्होंने देश में फैले अन्ध विश्वास को मिटाकर फिर से वेदों की प्रतिष्ठा की और वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु आर्य समाज की स्थापना की। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में आर्य समाज की अग्रणी भूमिका सर्वविदित है। उनकी इस प्रसिद्धि में उनके द्वारा अपने गुरु को दी गई गुरु दक्षिणा का बहुत बड़ा योगदान है। आओ! हम यह जाने कि उनके द्वारा अपने गुरु को दी गई गुरु दक्षिणा में ऐसी क्या विलक्षणता थी? स्वामीजी के बचपन का नाम मूलशंकर था। मूलशंकर ने चौबीस वर्ष की आयु में घर छोड़ा और संन्यासी बने। स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ली और दयानन्द सरस्वती नाम से विख्यात हुए।
स्वामी जी तेरह वर्ष तक एक सच्चे गुरु की खोज में भटकते रहे। अन्त में उन्हें मथुरा के प्रख्यात गुरु विरजानन्द जी जो जन्म से अंधे तो थे परंतु प्रज्ञा चक्षु थे, उनकी जानकारी मिली, पहुंच गए उनकी कुटिया पर। दयानन्दजी ने ज्योंही कुटिया का द्वार खटखटाया त्योंही भीतर से आवाज आई कौन है? स्वामी जी ने कहा, यही तो जानने आपके पास आया हूँ। उत्तर सुनते ही दंड़ी स्वामी विरजानन्द जी ने तुरन्त द्वार खोल दिया। स्वामी जी ने तीन वर्ष तक गुरु चरणों में बैठकर गहन अध्ययन किया। इस अवधि में ऐसे भी अनेक अवसर आए जब गुरुजी ने क्रोधित होकर अपने प्रिय शिष्य दयानंद को कठोर दण्ड भी दिया, परन्तु दयानन्द जी ने कभी भी गुरु सेवा में न्यूनता नहीं आने दी। सदैव गुरु आज्ञा को शिरोधार्य किया।
गुरु विरजान्द जी ने भी अपना सम्पूर्ण आर्ष ज्ञान और अपना लाड़-प्यार दयानन्द जी पर उड़ेल दिया। तीन वर्ष के उपरान्त अध्ययन पूर्ण होने पर गुरु से विदा होने का समय आया। स्वामी जी भी प्राचीन वैदिक परम्परानुसार बिना गुरु दक्षिणा दिये तो कैसे जाते? किन्तु देने के लिए उनके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। इतने समय तक गुरु के चरणों में बिताने से वे यह तो जान गये थे कि गुरुजी को लौंग अत्यधिक पसंद है। कहीं से मुट्ठीभर लौंग की व्यवस्था की और पहुंच गये गुरुजी के चरणों में। गुरुजी ने पूछा, दयानन्द क्या लाए हो? गुरुदेव! गुरु दक्षिणा में लौंग लाया हूं। वत्स ! यह सच है कि मुझे लौंग प्रिय है, किन्तु मुझे तो तुमसे कुछ और ही अपेक्षा है। आदेश करें गुरुदेव! मैं आपकी अपेक्षा पूर्ण करूंगा।
तब जन्मांध दंडी स्वामी विरजानन्दजी ने धीर-गंभीर वाणी में कहा – मुझे गुरु दक्षिणा में लौंग नहीं तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन चाहिए। मैंने तुम्हें जो शिक्षा दी है, उसे सफल कर दिखाओ, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत-मतांतर की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र फैलाओ। यही तुम्हारी गुरु दक्षिणा है। ईश्वर तुम्हारे प्रयासों को सफलता प्रदान करें।
इस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपना संपूर्ण जीवन गुरु दक्षिणा में गुरु को समर्पित कर दिया। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए वेदों की पुनर्प्रतिष्ठा की। वेदों की ओर चलो! का उद्घोष उन्हीं का है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सर्वप्रथम स्वराज्य प्राप्त करने की बात उन्होंने ही कही, जिसे तिलक जी ने आगे बढ़ाया। हिंदी के वे प्रखर पक्षधर थे। उस समय के अधिकांश स्वतंत्रता सैनानी इनके अनुयायी थे। उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण गुरु दक्षिणा से हुआ, ऐसा कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसी विलक्षण है हमारी पवित्र गुरु दक्षिणा।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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