(लेखक विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र के संयोजक, प्रचार विभाग हैं।)
श्री कृष्णचंद्र गांधी का नाम भारतीय शिक्षा, संस्कृति और सेवा के क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने अपने समर्पण, त्याग और अनुशासन से लाखों लोगों के जीवन में बदलाव लाने का काम किया। 11 अक्टूबर 1921 को मेरठ, उत्तर प्रदेश में जन्मे गांधीजी ने जीवन के हर क्षेत्र में सादगी और नैतिकता का पालन किया। उनका जीवन दर्शन न केवल भारतीय मूल्यों और संस्कारों से ओतप्रोत था, बल्कि वे उस शिक्षा प्रणाली को विकसित करने के प्रति भी समर्पित थे, जो भारतीय संस्कृति और आदर्शों को प्रतिबिंबित करती हो। वे मानते थे कि समाज का वास्तविक उत्थान भारतीय संस्कृति से जुड़े संस्कारों और शिक्षा से ही संभव है।
शुरुआती जीवन और संघ से जुड़ाव
कृष्णचंद्र गांधी बचपन से ही एक अनुशासनप्रिय, सादगीपूर्ण और साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत ही सादा था। वे कभी चश्मा नहीं पहनते थे, अंग्रेजी दवाओं का उपयोग नहीं करते थे और न ही कभी किसी निजी अस्पताल में भर्ती हुए। 1943 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और 1944 में बी.ए. करने के बाद उन्होंने अपना जीवन संघ के प्रचारक के रूप में समर्पित कर दिया। उनका शारीरिक और मानसिक संयम संघ की गतिविधियों के लिए बेहद उपयुक्त था। घोष, तैराकी और घुड़सवारी जैसे शारीरिक कार्यक्रमों में उनकी विशेष रुचि थी। मथुरा में जिला प्रचारक रहते हुए, उन्होंने बाढ़ के समय उफनती यमुना को तैरकर पार किया और युवाओं को इसके लिए प्रेरित किया।
सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना
1952 में, गोरखपुर में विभाग प्रचारक के रूप में रहते हुए गांधीजी ने नानाजी देशमुख के साथ मिलकर प्रांत प्रचारक भाऊराव देवरस के मार्गदर्शन में पहला “सरस्वती शिशु मंदिर” स्थापित किया। यह केवल एक विद्यालय नहीं था, बल्कि भारतीय संस्कृति और संस्कारों का एक अद्वितीय मंदिर था। इस मंदिर में शिशु-विद्यार्थी देवताओं के समान माने जाते थे और उनके आचार्य उन्हें शिक्षा और संस्कारों का पाठ पढ़ाते थे। यह विद्यालय भारतीय शिक्षा व्यवस्था का एक प्रतीक बन गया और देखते ही देखते सरस्वती शिशु मंदिर की शाखाएँ पूरे देश में फैलने लगीं। यह गांधीजी के प्रयासों और नेतृत्व का परिणाम था कि “विद्या भारती” एक विशाल शिक्षा संस्थान के रूप में उभरकर सामने आई, जिसके अंतर्गत आज 12 हजार से अधिक औपचारिक विद्यालय संचालित हैं जिनमें लगभग 31 लाख विद्यार्थी अध्ययनरत है तथा 8 हजार से अधिक अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों के माध्यम से 2 लाख बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदान की जा रही है।
विद्या भारती योजना का विस्तार
विद्या भारती योजना को आगे बढ़ाने के लिए गांधीजी को उत्तर प्रदेश के बाद पूर्वोत्तर भारत भेजा गया। पूर्वोत्तर भारत में उनके प्रयासों ने शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांति का सूत्रपात किया। हाफलांग जैसे जनजातीय क्षेत्रों में उन्होंने नौ जनजातियों के बच्चों के लिए छात्रावास और विद्यालय की स्थापना की, जो कि वहां के शैक्षिक विकास का केंद्र बना।
उनका समर्पण और प्रयास पूर्वोत्तर के वनवासी क्षेत्रों में शिक्षा की नींव रखने में महत्वपूर्ण साबित हुआ। असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में उन्होंने शिक्षा के कई प्रकल्प प्रारंभ किए। तेजपुर, असम में 1997 में उनके मार्गदर्शन में पूर्वोत्तर जनजाति शिक्षा समिति की स्थापना हुई, जिसने शिक्षा को दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचाने का प्रयास किया। उनके अद्वितीय योगदान के लिए उनकी स्मृति में 2007 से कृष्णचंद्र गांधी पुरस्कार की स्थापना की गई, जिसे जनजाति शिक्षा में विशेष योगदान देने वाले व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है।
शिक्षा और संस्कारों का प्रसार
कृष्णचंद्र गांधी का उद्देश्य केवल शिक्षा प्रदान करना नहीं था, बल्कि भारतीय संस्कृति और मूल्यों से ओतप्रोत शिक्षा को समाज के हर वर्ग तक पहुँचाना था। वे मानते थे कि शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें संस्कार, अनुशासन और सामाजिक जिम्मेदारी का भी समावेश होना चाहिए। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करना था, जो समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पित हों।
उन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर और विद्या भारती के माध्यम से बच्चों को केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें संस्कार, सेवा और समर्पण का पाठ भी पढ़ाया। उनका मानना था कि शिशु अवस्था से ही बच्चों में साहस, आत्म-निर्भरता और अनुशासन का विकास होना चाहिए। इसी दृष्टिकोण के तहत उन्होंने नैनीताल की ठंडी झील को पार करके अपने साहस और अनुशासन का उदाहरण प्रस्तुत किया।
पूर्वोत्तर भारत में कार्य
कृष्णचंद्र गांधी ने पूर्वोत्तर भारत में शिक्षा और संस्कारों के बीजारोपण के लिए अविस्मरणीय योगदान दिया। हाफलांग जैसे दुर्गम क्षेत्रों में जनजातीय बच्चों के लिए छात्रावास और विद्यालय स्थापित करने का उनका प्रयास सराहनीय था। उनकी प्रेरणा से असम के तेजपुर में 1997 में “पूर्वोत्तर जनजाति शिक्षा समिति” की स्थापना की गई, जो जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार के लिए कार्यरत है। 2007 से, जनजाति शिक्षा में विशेष योगदान देने वाले व्यक्तियों को “कृष्णचंद्र गांधी पुरस्कार” प्रदान किया जा रहा है। 2020 में “कृष्णचंद्र गांधी फाउंडेशन” की स्थापना हुई। यह फाउंडेशन जनजातीय शिक्षा के क्षेत्र में विशेष कार्य करने के लिए समर्पित है। इसके माध्यम से जनजातीय समाज में शिक्षा, संस्कृति और जीवन मूल्यों के संरक्षण के कार्यों को और अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाया जा रहा है।
आपातकाल और शिक्षा आंदोलन
1975 के आपातकाल के दौरान जब देशभर में अराजकता का माहौल था, गांधीजी ने विद्या भारती और सरस्वती शिशु मंदिरों को बचाने के लिए अपार संघर्ष किया। उस समय सरकार ने सरस्वती शिशु मंदिरों को जबरन अपने नियंत्रण में ले लिया था। परंतु गांधीजी के नेतृत्व में अभिभावकों और शिक्षा प्रेमियों ने शांतिपूर्ण विरोध किया, जिससे सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा। आपातकाल के बाद, गांधीजी ने नष्ट हो चुके विद्यालयों को पुनः स्थापित करने का काम शुरू किया, जिसमें उन्हें अपार सफलता मिली।
विद्या भारती का गठन
सरस्वती शिशु मंदिरों में दी जाने वाली उत्तम शिक्षा और संस्कारों ने समाज में अपनी विशेष पहचान बनाते हुए व्यापक सम्मान और लोकप्रियता प्राप्त की। इसकी सफलता से प्रेरित होकर शिशु मंदिरों का विस्तार अन्य राज्यों में भी होने लगा और कुछ ही वर्षों में कई नए विद्यालयों की स्थापना की गई। विभिन्न क्षेत्रों में विद्यालयों के कुशल प्रबंधन के लिए राज्य स्तरीय समितियों का गठन हुआ। 1977 में एक राष्ट्रीय निकाय “विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान” का गठन किया गया, जिसने भारतीय शिक्षा और संस्कारों के प्रसार में एक नई दिशा दी। विद्या भारती का पंजीकृत कार्यालय लखनऊ में और कार्यकारी मुख्यालय दिल्ली में स्थित है। सभी प्रान्त स्तरीय समितियां इस विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान से संबद्ध हैं।
शिक्षा संगम
1978 में गांधीजी के नेतृत्व में दिल्ली में “शिशु संगम” का आयोजन हुआ, जिसमें 16,000 से अधिक विद्यार्थियों ने भाग लिया। यह आयोजन विद्या भारती के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने भी भाग लिया।
विरासत
कृष्णचंद्र गांधी ने अपना सम्पूर्ण जीवन शिक्षा, सेवा और संस्कारों के प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने उत्तर प्रदेश से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक शिक्षा के दीप जलाए और जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा का बीजारोपण किया। मथुरा में अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब उन्हें महसूस हुआ कि उनका समय निकट आ रहा है, तो उन्होंने भोजन, दूध और जल लेना बंद कर दिया। 24 नवंबर 2002 को इस महान पुरुष ने मथुरा में अपनी अंतिम सांस ली और अपनी देह श्रीकृष्ण को समर्पित कर दी।
आज विद्या भारती विशाल वटवृक्ष के रूप में शिक्षा क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन हेतु कार्यरत है। सरस्वती शिशु मंदिरों के माध्यम से उनके द्वारा शुरू किए गए कार्य उनके जीवंत स्मारक के रूप में हमारे सामने हैं। उनके प्रयासों से लाखों बच्चों को न केवल शिक्षा मिली, बल्कि संस्कार और समाज के प्रति समर्पण का पाठ भी पढ़ाया गया। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।