कृष्णचंद्र गांधी फाउंडेशन द्वारा राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया। सरस्वती शिशु मंदिर योजना के जनक कृष्णचंद्र गांधी की जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में ‘‘अप्रतिम संगठक कृष्णचंद्र गांधी’’ विषय पर वेबिनार का आयोजन किया गया। विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र द्वारा इस अवसर पर कृष्णचंद्र गांधी फाउंडेशन का निर्माण किया गया।
इस वेबिनार में विद्या भारती के अखिल भारतीय संगठन मंत्री मा. यतीन्द्र शर्मा जी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। वेबिनार की अध्यक्षता डाॅ. भूपेन हाजरिका फिल्म व टेलिविजन संस्थान के चेयरमैन डाॅ. जयकांत शर्मा जी ने की। वेबिनार में विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री श्री अवनीश भटनागर जी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र की उपाध्यक्षा डाॅ. नीलिमा गोस्वामी व पूर्वोत्तर क्षेत्र के जनजाति शिक्षा प्रमुख श्री मोइनतुंग जेमी ने अपने अनुभव वेबिनार में प्रस्तुत किये। वेबिनार का संचालन विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र के सह संगठन मंत्री डाॅ. पवन तिवारी जी ने किया।
वेबिनार में श्री यतीन्द्र शर्मा जी ने बताया 1952 में कृष्णचंद्र गांधी जी गोरखपुर में विभाग प्रचारक थे। उन दिनों नाना जी देशमुख भी वहीं थे। इन दोनों ने प्रांत प्रचारक भाऊराव देवरस के आशीर्वाद से वहां पहला सरस्वती शिशु मंदिर खोला। आज वह बीज वटवृक्ष बन चुका है, जिसकी देश में 30,000 से भी अधिक शाखाएं हैं। इसके बाद भाऊराव देवरस ने उन्हें इसके विस्तार का काम सौंप दिया। लखनऊ में सरस्वती कुंज, निराला नगर तथा मथुरा में शिशु मंदिर प्रकाशन उन्हीं की देन हैं। इतना करने के बाद भी वे कहते, ‘‘व्यक्ति कुछ नहीं है। ईश्वर की प्रेरणा से यह सब संघ ने किया है।’’ वे सदा गोदुग्ध का ही प्रयोग करते थे। लखनऊ में उनकी प्रिय गाय उनके लिए किसी भी समय दूध दे देती थी। यही नहीं, उनके बाहर जाने पर वह दूध देना बंद कर देती थी। उत्तर प्रदेश के बाद उन्हें पूर्वोत्तर भारत में भेजा गया। हाफलांग में उन्होंने नौ जनजातियों के 10 बच्चों का एक छात्रावास प्रारम्भ किया, जो आगे चलकर पूर्वोत्तर के सम्पूर्ण काम का केन्द्र बना। रांची के सांदीपनि आश्रम में रहकर उन्होंने वनवासी शिक्षा का पूरा स्वरूप तैयार किया तथा प्राची जनजाति सेवा न्यास, मथुरा के माध्यम से उसके लिए धन का प्रबंध भी किया। स्वास्थ्य काफी ढल जाने पर उन्होंने मथुरा में ही रहना पसंद किया। जब उन्हें लगा कि अब यह शरीर लम्बे समय तक शेष नहीं रहेगा, तो उन्होंने एक बार फिर पूर्वोत्तर भारत का प्रवास किया। वहां वे सब कार्यकर्ताओं से मिलकर अंतिम रूप से विदा लेकर आये। इसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। यह देखकर उन्होंने भोजन, दूध और जल लेना बंद कर दिया। शरीरांत से थोड़ी देर पूर्व उन्होंने श्री बांके बिहारी मंदिर का प्रसाद ग्रहण किया था।
वेबिनार में प्रतिभागियो ने आॅनलाईन रजिस्ट्रेशन करके भाग लिया। विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री श्री अवनीश भटनागर जी ने बताया 1945 में गांधी जी मथुरा में जिला प्रचारक थे। वहां वे बाढ़ के दिनों में उफनती यमुना को तैरकर पार करते थे। अनेक स्वयंसेवकों को भी उन्होंने इसके लिए तैयार किया। मथुरा का संघ कार्यालय (कंस किला) पहले एक बड़ा टीला था। उसे खरीदकर खुदाई कराई, तो नीचे सचमुच किला ही निकल आया। अब उसे ‘केशव दुर्ग’ कहते हैं। वह जीवंत काल में ही कथाओं के केन्द्र बन गये थे। वे सदा गोदुग्ध का ही प्रयोग करते थे। लखनऊ में उनकी प्रिय गाय उनके लिए किसी भी समय दूध दे देती थी। यही नहीं, उनके बाहर जाने पर वह दूध देना बंद कर देती थी। पूर्वोत्तर भारत में विद्या भारती के कार्य को प्रारम्भ करने से लेकर प्रतिष्ठापित करने में कृष्णचंद्र गांधी जी का विषेष योगदान है। डाॅ. पवन तिवारी ने बताया पूर्वोत्तर जनजाति षिक्षा समिति द्वारा प्रतिवर्ष षिक्षा क्षेत्र में विषेष कार्य करने वाले लोगों को कृष्णचंद्र गांधी पुरस्कार प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार के अंतर्गत 1 लाख रुपये व स्मृति चिन्ह प्रदान किया जाता है।