– वासुदेव प्रजापति
आजकल “व्यक्तित्व विकास” शब्द अत्यधिक प्रचलित है। अनेक व्यक्ति व संस्थान व्यक्तित्व विकास शब्द के स्थान पर “पर्सनेलिटी डेवलपमेंट” शब्द का प्रयोग करते हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि ये दोनों शब्द समान अर्थ वाले हैं। पर्सनेलिटी डेवलपमेंट शब्द का प्रयोग करने में उन्हें गौरव की अनुभूति भी होती है। किन्तु वे यह नहीं जानते कि इन दोनों शब्दों के अर्थ में रात-दिन का अन्तर है। जो अन्तर जड़ व चेतन में है, उतना ही अन्तर व्यक्तित्व तथा पर्सनेलिटी में है। पर्सनेलिटी में मूल शब्द परसोना है, जो लेटिन भाषा का शब्द है और उसका अर्थ है, मुखोटा। मुखोटा धारण करने का अर्थ होता है, हम जैसे नहीं हैं वैसे दिखाई देना अर्थात् कल्पित रूप धारण करना। जबकि व्यक्तित्व का अर्थ है अपने वास्तविक स्वरूप को जानना। आज हम भारतीय शब्दों का प्रयोग तो करते हैं परन्तु उनका अंग्रेजी अर्थ ही लेकर चलते हैं। अतः हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि व्यक्तित्व और विकास शब्दों का भारतीय अर्थ क्या है? इन दोनों शब्दों का भारतीय अर्थ जानने से पूर्व हम परमात्मा की लीला नामक कथा का आनन्द लेंगे।
परमात्मा की लीला
जब वर्षा आती है तो बच्चे खेलते हैं और आनन्दित होते हैं। वे खेल-खेल में भीगी हुई रेत के घर बनाते हैं। घर अच्छा नहीं बना तो उसे तोड़ कर पुनः नया घर बनाते हैं। हम उसे बच्चों का खेल कहते हैं। परमात्मा भी इसी प्रकार सृष्टि बनाने का खेल खेलते हैं, किन्तु परमात्मा के खेल को हम उनकी लीला कहते हैं। बच्चों या बड़ों के खेल तो समझ में आते हैं, परन्तु परमात्मा की लीला हमें समझ में नहीं आती, इसलिए हम कहते हैं कि परमात्मा की लीला बड़ी विचित्र है।
ऐसा सुना और पढ़ा है कि पहले सृष्टि नहीं थी, केवल परमात्मा ही थे, वो भी अकेले दूसरा कोई नहीं था। एक बार परमात्मा को सूझा कि मैं अकेला हूँ मैं एक से अनेक बन जाऊॅं। एक से अनेक बनने के लिए उसने लीला की। जैसे मकड़ी अपने मुंह में से लार निकालकर उससे जाला बुनती है। जाला बुनकर स्वयं भी उसी जाले में रहती है। ठीक ऐसे ही परमात्मा ने अनेक होने की कामना की। इसी बात को हमारे उपनिषद कहते हैं- “सोऽकामयत् एकोऽहम् बहुस्याम् इति।” अपनी कामना पूर्ति के लिए उन्होंने तप किया – “स तपोऽतप्यत”। अर्थात् उन्होंने अपने तपोबल से सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण किया।
इस सृष्टि में परमात्मा ने अन्त:करण व बाह्यकरण बनाया, पंच तन्मात्राएँ और पंच महाभूत बनायें। उसी में से आकाश, वायु, सूर्य, जल, पृथ्वी आदि बनायें। उसी में गृह-नक्षत्र, वृक्ष-वनस्पति, पर्वत, अरण्य, कीट-पतंग, पशु-पक्षी तथा मनुष्य आदि बनायें। ऐसे विविध रूपों वाली सृष्टि को बनाकर परमात्मा स्वयं इनमें समा गया। अपने बनाए हुए विविध रूपों का सृजनहार भी वह स्वयं बन गया। इस प्रकार परमात्मा की बनाई हुई सम्पूर्ण सृष्टि मूल में एक ही है, और परमात्मा का ही विस्तार है। इसलिए हमारे यहाँ कहावत बनीं – “कण-कण में भगवान हैं। कण-कण में भगवान को देखने की दृष्टि ने ही भारतीयों का व्यक्तित्व अन्यों से अलग और विशेष गढ़ा है। देखो है ना भगवान की लीला विचित्र!
व्यक्ति शब्द का उद्गम परमात्मा
व्यक्ति संज्ञा में मूल शब्द “व्यक्त” है। इस व्यक्त को समझने के लिए इसके विलोम शब्द “अव्यक्त” को समझना सरल है। जिस वस्तु या पदार्थ को हम देख नहीं सकते, छू नहीं सकते, सूंघ नहीं सकते, सुन नहीं सकते, चख नहीं सकते अथवा जिसका अनुभव नहीं कर सकते, आकलन नहीं कर सकते अर्थात् किसी भी प्रकार से उसे जान नहीं सकते, उसे कहते हैं कि वह अव्यक्त है।
इस जगत में अव्यक्त कौन है? एक मात्र परमात्मा ही अव्यक्त हैं। परमात्मा को हम न देख सकते हैं, न छू सकते हैं, न सूंघ सकते हैं और न उसके स्वरूप को मन व बुद्धि से जान सकते हैं। फिर भी हम सब यह मानते हैं कि परमात्मा है। वह हमारी जानने की सीमा में नहीं है, परन्तु है अवश्य। वह परमात्मा जो अव्यक्त है, वही सृष्टि के रूप में हमारे सामने व्यक्त हुआ है। सृष्टि व्यक्त है, इसलिए हम उसे जान सकते हैं। परमात्मा ने मनुष्य का यह व्यक्त रूप प्रकृति के साथ मिलकर बनाया है, इसलिए मनुष्य व्यक्ति कहलाया। अर्थात् परमात्मा का व्यक्त रूप ही व्यक्ति है।
व्यक्तित्व जड़-चेतन सबका होता है
हमने यह जाना कि अव्यक्त परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ तब व्यक्ति कहलाया। उसी व्यक्ति शब्द की भाववाचक संज्ञा बनी “व्यक्तित्व”। व्यक्तित्व जड़-चेतन सबका होता है, इसलिए हमारे पूर्वजों ने जड़-चेतन सबके व्यक्तित्व का आदर करना सिखलाया है। अर्थात् जड़-चेतन सबके स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करना हमारा कर्तव्य बनता है। जब हम इस भारतीय मान्यता को छोड़कर पाश्चात्य मान्यता को अपनाते हैं, तब जड़-चेतन को मनुष्य से कम आंकते हैं और उनका शोषण करते हैं। केवल जड़-चेतन के साथ ही नहीं अपितु मनुष्य अपने समान अन्य मनुष्य का उपयोग करने से भी नहीं चूकता। अतः हमें भारतीय अर्थ और विचार को ठीक से समझकर जड़-चेतन सबका आदर करते हुए उनके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए।
व्यक्तित्व के विविध प्रकार
व्यक्ति के व्यक्तित्व को हमारे शास्त्रों में अनेक मापदंडों के आधार पर निरूपित किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में व्यक्तित्व को त्रिगुण के आधार पर सात्त्विक, राजसिक व तामसिक बतलाया गया है। आयुर्वेद में त्रिदोष के आधार पर वातज, पित्तज व कफज व्यक्तित्व माने गयें हैं। महर्षि अरविन्द ने चारों वर्णों के स्वभाव को आधार मानकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के रूप में चार प्रकार का व्यक्तित्व निरूपित किया है। इसी प्रकार उपनिषद में पंचकोशात्मक व्यक्तित्व का निरूपण हुआ है। ये सभी एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से बताए गए व्यक्तित्व हैं। हमारे अधिकांश शास्त्रों में समान रूप से पंचकोशात्मक व्यक्तित्व का वर्णन मिलता है। अतः शैक्षिक दृष्टि से भी पंचकोशात्मक व्यक्तित्व को केन्द्र में रखकर शिक्षा योजना बनाना अधिक सार्थक लगता है।
विकास की आधुनिक अवधारणा
आज सर्वत्र विकास का बोलबाला है। हम प्रत्येक क्षेत्र में विकास की बात तो करते हैं, परन्तु उसका सही अर्थ नहीं जानते। शिक्षा के क्षेत्र में परीक्षा परिणाम अच्छा रहा तो हम उसे विकास हुआ मानते हैं। औद्योगिक क्षेत्र में एक उद्योग के बीस उद्योग हो गये तो विकास हुआ कहते हैं। किसी ग्राम में सड़क नहीं थी और सड़क बन गई तो विकास हुआ, पहले एक लेन की सड़क थी, वह फोर लेन हो गई तो विकास हुआ। व्यक्तिगत स्तर पर पहले घरेलू सुख-सुविधाऍं नहीं थीं, अब घर में कार आदि सुविधाएँ हो गई तो अमुक व्यक्ति ने बहुत विकास कर लिया। कोई विद्यार्थी पढ़ने के लिए विदेश चला गया तो सब कहने लगते हैं कि भाई वाह! उसने तो बहुत अच्छा विकास कर लिया। आधुनिक विकास के ऐसे अनेक उदाहरण हमें प्रतिदिन सुनने को मिलते हैं।
विचार का विषय यह है कि क्या यही विकास है? यह तो केवल एक रेखीय है, केवल वृद्धि करना है। आगे ही आगे बढ़ते जाना है, जिसका कोई छोर नहीं है। आज एक मकान है तो दो होने चाहिए, घर में एक कार है तो चार होनी चाहिए। अभी गाँव में बीस ही उद्योग हैं, सौ होने चाहिए। सड़क फोर लेन ही है, सिक्स लेन होनी चाहिए। अर्थात् वृद्धि होनी चाहिए, जबकि वृद्धि की कोई सीमा नहीं होती। और चाहिए और चाहिए की भूख कभी मिटती ही नहीं। सदैव निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं। हमेशा कम ही कम लगता है, कभी पूर्णता आती ही नहीं। ऐसा विकास वास्तविक विकास नहीं, आभासी विकास ही होता है।
विकास की भारतीय अवधारणा
भारत की मनीषा ने वास्तविक विकास क्या होता है, इसे जाना। केवल वृद्धि करना या आगे से आगे बढ़ना को कभी विकास नहीं माना गया। हमारे यहाँ विकास का स्वरूप एक रेखीय नहीं, मंडलाकार है, चक्रीय है। व्यक्ति की दृष्टि से विचार करें तो जन्मजात मूलभूत योग्यताओं को बढ़ाना विकास माना गया है। जैसे- शरीर के विकास में शरीर पर पहने जाने वाले कपड़े कीमती होना, स्वर्ण के आभूषण धारण करना विकास नहीं है। शरीर में बल, लोच व गति का बढ़ना यह विकास है। ज्ञानेन्द्रियों की देखने, सुनने, सूंघने, छूने और चखने की क्षमता बढ़ना विकास है। मन का एकाग्र, शान्त व अनासक्त और सद्गुणी बनना विकास है। बुद्धि की ग्रहण शक्ति, समझ शक्ति व विवेक शक्ति का बढ़ना विकास है। चित्त का निर्मल होना, स्वतंत्र होना और अभय होना, जैसी मूल क्षमताओं का बढ़ना विकास है।
विकास का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु है, पूर्णता प्राप्त करना। इसे हम एक बीज के उदाहरण से समझेंगे। वट वृक्ष के बीज में एक पूर्ण विकसित छायादार वृक्ष बनने की जन्मजात क्षमता विद्यमान होती है। कोई बीज विशाल वटवृक्ष बनता है, कोई नहीं बन पाता। बीज से वृक्ष बनने की प्रक्रिया हम जानते हैं। एक बीज विकसित होकर अंकुर बनता है, अंकुर से टहनियां, टहनियों से पत्ते, पत्तों से फूल और फूल से फल में विकसित होता है। फल पहले छोटा व कच्चा होता है, धीरे-धीरे उसका विकास होता है। वह छोटे से बड़ा होता है, कच्चे से पकने लगता है, हरे रंग से पीले रंग का हो जाता है और खट्टे से मीठा हो जाता है। उस फल में बीज बन जाता है, ये सब फल के विकास के चरण हैं। पूर्ण विकसित फल को यदि कोई नहीं तोड़ता है तो एक दिन वह फल स्वयं टूटकर नीचे गिर जाता है। नीचे गिरा फल पड़ा-पड़ा मिट्टी में मिल जाता है और कुछ समय बाद फल में स्थित बीज पुनः अंकुरित हो जाता है।
यह कथा है एक बीज के विकास की, यह कथा है एक बीज की पूर्णता प्राप्त करने की। विकास द्वारा पूर्णता को पाना, यही विकास की भारतीय अवधारणा है। शिक्षा के द्वारा एक शिशु का विकास करते हुए उसे पूर्ण पुरुष बनाकर मुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ाना ही सही व्यक्तित्व विकास है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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