– वासुदेव प्रजापति,
ज्ञानार्जन के साधनों में अन्त:करण प्रमुख साधन है। अन्त:करण के चारों साधनों में हमने मन और बुद्धि को जाना। बुद्धि के पश्चात् तीसरा साधन है, अहंकार। आज हम इस तीसरे साधन अहंकार को समझेंगे।
अहंकार शब्द में मूल शब्द अहम् है। अहम् का अर्थ है ‘मैं’, अहम् का अर्थ है स्वयं, अहम् का अर्थ है आप खुद। आप अहंकार की बनावट जैसे अनेक शब्दों को जानते हैं, जैसे – चित्रकार, मूर्तिकार तथा रचनाकार ठीक वैसे ही अहंकार। जैसे चित्र को बनाने वाला चित्रकार वैसे अहम् को बनाने वाला या अहम् को प्रकट करने वाला अहंकार। किन्तु व्यवहार में अहंकार नकारात्मक अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है, इसलिए अहंकार को सब लोग बुरा मानते हैं। अहंकार के दो पक्ष हैं, वह जैसे नकारात्मक है, वैसे ही सकारात्मक भी है। यहाँ हम अहंकार के सकारात्मक पक्ष को जानेंगे।
व्यवहार में हम देखते हैं कि कोई भी क्रिया कर्ता के बिना नहीं हो सकती। यदि करने वाला ही नहीं है, तो क्रिया या कर्म नहीं हो सकता। किसी भी क्रिया को करने का निर्णय बुद्धि के साथ मिलकर अहंकार लेता है। अर्थात् अहंकार कर्ता है। कर्ता नहीं होगा तो कर्म नहीं होगा और कर्म नहीं होगा तो इस जगत में अकर्मण्य (निकम्मे) लोगों की भरमार हो जायेगी, उनका जीवन ही निरर्थक हो जायेगा। अर्थात् अहंकार ही हमें कर्ता बनाता है। यह कर्तापन का बोध हमें अहंकार से ही मिलता है। हमारे यहाँ यह मान्यता है कि “जो करेगा सो भरेगा”, तथा “जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान” अच्छे कर्म का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल। कर्म करने वाला ही फल भोगता है। इसलिए कर्ता ही भोक्ता है और कर्ता ही ज्ञाता भी है। अर्थात् अहंकार ही कर्ता, भोक्ता व ज्ञाता है। इस प्रकार ज्ञानार्जन में अहंकार की भूमिका सकारात्मक व महत्त्वपूर्ण है।
ज्ञानार्जन के साधनों में कर्मेन्द्रियाँ पदार्थ को भौतिक रूप में ग्रहण करती है। ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के रूप में, मन विचार के रूप में और बुद्धि विवेक के रूप में ग्रहण करती है। तात्त्विक रूप में बुद्धि निश्चय करके पदार्थ का यथार्थ रूप में बताती है। किन्तु यहाँ एक प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर यह ज्ञान हुआ किसको? इसका उत्तर यही है कि ज्ञान अहंकार को होता है, क्योंकि अहंकार ही कर्ता है। किसी भी प्रकार की क्रिया करने वाला, उसे जानने वाला तथा उसके फल को भोगने वाला अहंकार होता है। मैं करता हूँ, मैं जानता हूँ, मैं चाहता हूँ, मुझे सब कुछ चाहिए यह कहने वाला अहंकार ही होता है। बुद्धि जो निश्चय करती है, उसे लागू अहंकार करता है। यदि अहंकार ज्ञान ग्रहण नहीं करेगा तो ज्ञान किसके आश्रय में रहेगा, वह तो निराश्रित हो जायेगा। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति में अहंकार की एक विशिष्ट भूमिका है।
अहंकार के सम्बन्ध में यह समझना भी आवश्यक है कि अहंकार कब अच्छा होता है और कब बुरा होता है? जब अहंकार आत्मतत्व को सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करता है, तब वह अच्छा कहलाता है। इसके विपरीत जब वह आत्मतत्व को न मानकर स्वयं ही ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय लेता है, तब वह बुरा कहलाता है। जब वह स्वयं को आत्मतत्व का प्रतिनिधि मानता है, तब वह विनम्र होता है। परन्तु जब वह स्वयं को ज्ञान का स्वामी मान लेता है, तब वह मदान्वित हो जाता है और वह अपनी नकारात्मक भूमिका में आ जाता है। व्यवहार में हम इन दोनों प्रकार के मनुष्यों को देखते हैं। जब विवेक शक्ति में कहीं चूक होती है, तब अहंकार आत्मतत्व को नहीं मानता। उसकी यह स्थिति अज्ञान के कारण है, ज्ञान ही उसके इस अज्ञान को दूर कर उसे सकारात्मक भूमिका निभाने का भान दिलाता है।
ज्ञानार्जन के विभिन्न साधनों में ज्ञान का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। कर्मेन्द्रियों के स्तर पर ज्ञान क्रिया आधारित होता है। ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर ज्ञान अनुभव आधारित होता है, मन के स्तर पर ज्ञान विचार आधारित होता है, बुद्धि के स्तर पर ज्ञान विवेक आधारित होता है और अहंकार के स्तर पर ज्ञान दायित्वबोध आधारित होता है। सकारात्मक अहंकार से ही हमें दायित्व का बोध होता है।
श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार आत्मतत्व को न मानने वाला अहंकार आसुरी होता है। आत्मतत्व को मानने वाला अहंकार दैवी होता है। दैवी अहंकार विनम्र होता है। विनम्रता के साथ कर्ताभाव, ज्ञाताभाव तथा भोक्ताभाव होता है। इसलिए व्यवहार जगत में उसके साथ दायित्वबोध जुड़ता है। जो भी हो रहा है, वह मेरे करने से हो रहा है। मैं जो भी कर रहा हूँ, उसका फल मुझे ही भोगना पड़ेगा, इन भोगों के लिए मैं ही जिम्मेवार हूँ। जो भी हो रहा है, उसे मैं जानता हूँ, इसलिए दायित्व भी मेरा ही है। यह दायित्वबोध अहंकार की शक्ति है। अत: ज्ञानक्षेत्र के साथ दायित्वबोध जुड़ने की अत्यधिक आवश्यकता है।
आओ! हम दायित्वबोध जगाने वाली एक प्रेरक कथा से प्रेरणा प्राप्त करें।
आचार्य शंकुक
काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र के मूर्धन्य विद्वान शंकुक जब गुरुकुल में अध्ययनरत रत थे, तब पूरी लगन से अपना अध्ययन करते थे। जब अध्ययन पूर्ण कर लिया और नया जीवन शुरु करने हेतु घर लौटने का अवसर आया तब गुरुजी ने दीक्षान्त व्याख्यान में कहा – “स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्” अर्थात् प्रतिदिन कुछ न कुछ पढ़ना अवश्य, साथ ही किसी न किसी को पढ़ाना अवश्य, और पढ़ाने में कभी प्रमाद मत करना।
वे आचार्य बनकर अपने गाँव लौटे। उन्हें आचार्य होने के नाते अपना दायित्व स्वयं पढ़ना और पढ़ाना तथा इसमें प्रमाद न करना याद था। अत: वे प्रतिदिन स्वयं स्वाध्याय करते और गाँव के बालकों को एकत्र कर उन्हें पढ़ाते भी थे। इस प्रकार वे पूर्ण निष्ठा के साथ अपने दायित्व का निर्वहन किये जा रहे थे।
दायित्वभाव से पढ़ाने के कारण उनसे पढ़ने वाले बालक इतने प्रबुद्ध हो गये कि वे धीरे-धीरे अपने विद्यालय में अध्यापकों की गलतियाँ भी निकालने लगे, और बुद्धिमानी भी दिखाने लगे। विद्यालय के अध्यापकों को आश्चर्य हआ कि पहले तो ये बालक इतने बुद्धिमान नहीं थे, अब कैसे हो गये? निश्चय ही कुछ तो बात है। उन्होंने पता लगवाया, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि कुछ दिन पूर्व ही एक आचार्य गाँव में आए हैं, वे ही इन बालकों को प्रतिदिन पढ़ाते हैं। सब अध्यापकों ने मिलकर यह षडयंत्र रचा कि गाँव का कोई भी बालक उनके पास पढ़ने के लिए न जाय। उन्होंने किसी बालक को प्रलोभन देकर, किसी को डरा-धमकाकर तो किसी को उनके अभिभावकों से मना करवाकर रुकवा दिया।
दूसरे दिन कौतूहलवश सब अध्यापकों ने जानना चाहा कि अब आचार्य किसे पढ़ायेंगे। किन्तु उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्होंने देखा कि आचार्य ने अपने घर के दरवाजे पर दस-बारह खूँटे (शंकु) गाड़ रखे हैं और उन्हें ही शास्त्र पढ़ा रहे हैं। पूछने पर आचार्य ने कारण बताया कि गुरुजी की आज्ञा का आशय यही था कि प्रतिदिन पढ़ने व पढ़ाने से विद्या हृदयंगम होती है। अपने दायित्व की पूर्ति हेतु जब मुझे बालक नहीं मिले तो इन शंकुओं को ही पढ़ाने लगा, मुझे तो अपना दायित्व पूर्ण करना था। यह सुनकर सभी अध्यापक आचार्य की दायित्वनिष्ठा के समक्ष नतमस्तक हुए, उन्होंने आचार्य से क्षमा-याचना की और उन्हें आचार्य का सम्मान दिया।
संस्कृत में खूँटे को शंकु कहते हैं। शंकुओं को पढ़ाने के कारण उसी दिन से वे आचार्य शंकुक के नाम से विख्यात हुए। न्याय में आपका रस सम्बन्धी अभिमत – अनुमितिवाद (चित्र-तुरगन्याय) आज भी पढ़ा और पढ़ाया जाता है। आचार्य शंकुक की यह कथा हमें भी अपने दायित्व बोध का स्मरण दिलवाती है।
इति शुभम्!
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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