– वासुदेव प्रजापति
भारतीय समाज में आचार्य का स्थान अत्यन्त आदरणीय, पूजनीय एवं श्रेष्ठ माना गया है। सभी प्रकार के सत्तावान, बलवान और धनवान व्यक्तियों से आचार्य का स्थान ऊँचा माना गया है। ज्ञान को, ज्ञानी से अज्ञानी को हस्तान्तरित करके उसे ज्ञानी बनाने की जो व्यवस्था है, वही शिक्षा है। इस शिक्षा क्षेत्र का अधिष्ठाता शिक्षक है। शिक्षक को गुरु, उपाध्याय, आचार्य व अध्यापक आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है।
दैनिक व्यवहार में शिक्षक का आचार्य नाम अधिक प्रचलित है। हमारे शास्त्रों में आचार्य का परिचय इस अर्थ में करवाया गया है:
आचिनोतिहि शास्त्रार्थं आचारेस्थापयत्युत्।
स्वयमाचरते यस्तु स आचार्य:प्रचक्षते।।
जो शास्त्रों के अर्थ को अच्छी तरह जानता है, जो इन अर्थों को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है और छात्रों से भी आचरण करवाता है, उसे आचार्य कहा जाता है।
अत: आदर्श शिक्षक सबसे पहले आचार्य होना चाहिए। जो अपने आचरण से विद्यार्थी को जीवन निर्माण की प्रेरणा देने वाला हो। एक आचार्य का आचार्यत्व किन-किन बातों में हैं, इसे हम आज जानेंगे।
आचार्य विद्यार्थी परायण हो
आचार्य छात्र को ज्ञानवान बनाने हेतु ज्ञान साधना करता है। वह विद्यार्थी परायण तब बनता है, जब आचार्य अपने बारे में नहीं अपितु ज्ञान ग्रहण करने वाले विद्यार्थी के बारे में मुख्य रूप से विचार करता है। वह अपने विद्यार्थी से स्नेह-प्रेम करे, विद्यार्थी के प्रति अपनत्व की भावना रखे, उसमें विद्यार्थी का कल्याण करने की इच्छा होनी चाहिए।
ये सब बातें होने का अर्थ है कि वह विद्यार्थी को जानता है। विद्यार्थी के गुण-दोष, विद्यार्थी की ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता, उसकी आवश्यकता, उसके विकास की सम्भावना, उसकी सीमाएँ आदि को जानने की क्षमता और कौशल आचार्य को प्राप्त करने होते हैं, तभी एक आचार्य विद्यार्थी परायण हो पाता है।
आचार्य ज्ञान परायण हो
एक आचार्य तब ही ज्ञान परायण होता है, जब वह अपने जीवन में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान देने वाला हो, ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला हो और ज्ञान के प्रति निष्ठा रखने वाला हो। जो आचार्य धन-मान, पद-प्रतिष्ठा, वैभव और सुविधा से भी ज्ञान को अधिक आदर देता है, वह ज्ञान परायण होता है। वह कभी ज्ञान का अपमान नहीं होने देता। वह कभी धन, मान या प्रतिष्ठा आदि के लिए ज्ञान का सौदा नहीं करता तथा अपने विद्यार्थी को भी ज्ञान परायण बनाता है। वह ज्ञान को पवित्र मानता है, और ज्ञान प्राप्त करना ही जिसके जीवन का लक्ष्य होता है, वही आचार्य ज्ञान परायण होता है।
आचार्य आचार परायण हो
विद्यार्थी को ज्ञान हस्तान्तरित करने के लिए शिक्षक को आचार्य बनना होता है। एक शिक्षक यदि आचार्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को शिक्षित नहीं कर सकता। आचार्य का आचरण ज्ञाननिष्ठ होता है, वह सत्यनिष्ठ व धर्मनिष्ठ होता है। सत्य व धर्म के मार्ग पर चलने के कारण उसे संयमी और इन्द्रियजयी बनना ही पड़ता है। ये सभी पवित्रता के आयाम हैं। अत: आचार्य को पवित्र आचरण वाला होना आवश्यक है। पवित्र होने के साथ-साथ आचार्य को निर्भय भी होना होता है। विद्यार्थी को आचरण सिखाने हेतु आचार्य का आचारवान होना आवश्यक है। आचार के बिना उपदेश तो निरर्थक है। आचार्य की कथनी व करनी में भेद नहीं, एकता होनी चाहिए। हमारे यहाँ सदाचार का यही मूल मंत्र है –
मनस्येकं वचस्येकं कर्मस्येकं महात्मनां।
मनस्यन्यद वचस्यन्यद कर्मस्यन्यद दुरात्मनां।।
अर्थात् जिसके मन में, वचन में और कर्म में भिन्नता रहती है, वह दुरात्मा है तथा जिसके मन, वचन व कर्म में एकवाक्यता है, वह महात्मा है, सज्जन है। जो मनसा, वाचा, कर्मणा एक है, वही सदाचारी है। आचार्य को ऐसा सदाचारी होना ही चाहिए।
आचार्य धर्म परायण हो
शिक्षा का प्रसिद्ध सूत्र है – “शिक्षा धर्म सिखाती है।” आज धर्म को कतिपय लोगों ने विवाद का विषय बना दिया है। राजनीति में उसे एक शस्त्र बनाकर उसका दुरुपयोग किया जा रहा है। यहाँ तक कहा जा रहा है कि धर्म तो भाँग की गोली है, अत: हेय है, त्याज्य है। जबकि सत्य तो यह है कि धर्म विश्वनियम है, जिस पर सम्पूर्ण सृष्टि टिकी हुई है। धर्म ही जीवन की रक्षा करता है। यदि धर्म को छोड़ दिया जाय तो विनाश ही विनाश है। कहा भी है कि हम धर्म को बचायेंगे तो धर्म हमें बचायेगा – “धर्मो रक्षति रक्षित:।” अत: धर्माचरण के साथ-साथ धर्म के बारे में व्याप्त विपरीत धारणाओं को दूर करने का दायित्व भी आचार्य का है। तभी शिक्षा सही अर्थ में धर्म सिखाने वाली बन पायेगी।
आचार्य समाज परायण हो
विद्यार्थी के साथ-साथ आचार्य को समाज की चिन्ता करने वाला बनना चाहिए। जब मनुष्य एक-दूसरे के साथ एकात्मता के सम्बन्ध विकसित करता है, तब समाज बनता है। इस समाज को बनाये रखने वाला तत्त्व धर्म है, इसे हम समाज धर्म कहते हैं। आचार्य समाज-धर्म का पालन करने वाला होता है। वह समाज को ईश्वर का विश्वरूप मानता है। वह अपने विद्यार्थी को भी समाज परायण बनाता है।
आज व्यक्ति व समाज के मध्य द्वन्द्व निर्माण हुआ है। वास्तव में व्यक्ति समाज का ही एक अभिन्न अंग होता है, किन्तु आज व्यक्ति अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण घटक बन गया है। कुछ लोग व्यक्ति के हित की रक्षा हेतु अनेक व्यक्तियों में सामंजस्य निर्माण करने वाली व्यवस्था को समाज कहते हैं, समाज की यह परिभाषा सही नहीं है। समाज के अभिन्न अंग के रूप में व्यक्ति को अपना समायोजन करना सिखाना, यह आचार्य का दायित्व है। आचार्य विद्यार्थी को समाज परायण बनाने के साथ-साथ उसे राष्ट्र परायण तथा ईश्वर परायण भी बनाता है। यही आचार्य का समाज परायण होना है।
श्रेष्ठ विद्यार्थी आचार्य बने
एक आचार्य के व्यक्तित्व में ये सभी गुण हों तथा शिक्षा क्षेत्र को आदर्श आचार्य प्राप्त हों, ऐसी एक सुनिश्चित व्यवस्था होनी आवश्यक है। ऐसी व्यवस्था करना समाज का एवं शिक्षक समुदाय दोनों का प्रमुख दायित्व है। इस दृष्टि से दोनों को अधोलिखित बातों की ओर ध्यान देना चाहिए।
१. सब दृष्टि से श्रेष्ठतम विद्यार्थियों को ही शिक्षक बनाना चाहिए। सामान्य विद्यार्थियों को शिक्षक बनने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, संस्कार, भावना के आधार पर करनी चाहिए। श्रेष्ठ शिक्षक के हाथों में ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी समृद्ध होता जाता है, जबकि सामान्य शिक्षक के हाथों में ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी क्षीण होता जाता है। किसी भी समाज के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं मानी जा सकती। इसलिए समाज व शिक्षक वर्ग को चाहिए कि श्रेष्ठतम विद्यार्थी ही शिक्षक बने ऐसी स्थायी व्यवस्था बनायें।
२. आचार्य को अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को आचार्य बनने की प्रेरणा देनी चाहिए और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिए। दूसरी ओर समाज को चाहिए कि वह आचार्य का सम्मान इतना बढा़ये कि श्रेष्ठ विद्यार्थी भी आचार्य बनने के लिए लालायित हों। साथ में आचार्य के योगक्षेम की समाज पर्याप्त चिन्ता करे।
३. ऐसा विद्यार्थी आचार्य बने जो आचार्य के स्वभाव वाला हो। स्वभाव जन्मजात होता है और गुण व कर्म के अनुसार भी होता है। इसलिए स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी चाहिए। हमारे यहाँ प्राचीनकाल में स्वभाव के अनुसार जीवन कार्य निश्चित करने की व्यवस्था थी। एक व्यवस्था बड़ी सहज व सरल थी, पुत्र पिता का व्यवसाय आगे बढ़ाता था। अत: आचार्य का पुत्र आचार्य होगा यह सहज ही स्वीकार्य था। परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में पिता-पुत्र परम्परा से गुरु-शिष्य परम्परा का महत्त्व अधिक था। गुरु अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने के स्थान पर श्रेष्ठतम शिष्य को ही आश्रम का दायित्व सौंपता था। कौनसा शिष्य आचार्य बनेगा, यह तय करने का अधिकार गुरु का ही होता था।
आज हमारे देश में श्रेष्ठ आचार्यों का अभाव है। इस अभाव को दूर करने के लिए उपर्युक्त उपायों को अपनाना आवश्यक है। श्रेष्ठ आचार्यों के होने से शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी और गुणवत्ता बढ़ने से श्रेष्ठ नागरिक निर्माण होंगे। आचार्य ही राष्ट्र निर्माता है। राष्ट्र निर्माता जितना श्रेष्ठ होगा,उतना ही हमारा राष्ट्र समृद्धिशाली एवं वैभवशाली बनेगा।
आज हम ऐसे ही राष्ट्रनिर्माता आचार्य का जीवन परिचय प्राप्त करेंगे।
मैं आचार्य हूँ…..
“मैं आचार्य हूँ, मुझे समाज और राष्ट्र का विचार करना है।” यह प्रेरक वाक्य आचार्य चाणक्य का है। उनका बचपन का नाम तो विष्णुगुप्त था, परन्तु वे चाणक्य नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका यह नामकरण कैसे हुआ? यह जानने के लिए हम ईसा से लगभग २४०० वर्ष पहले मगध के विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र में चलते हैं।। उस समय पाटलीपुत्र में आचार्य चणक का एक गुरुकुल चलता था। उस समय मगध के सम्राट धननन्द थे। वे विलासी, आततायी और शिथिल मनोबल वाले राजा थे।
सम्राट धननन्द अपनी प्रजा को अनेक अविचारी करों से लूटते थे। उनके महमंत्री थे शकटार, उन्होंने जब इन करों का विरोध किया तो सम्राट ने उन्हें कारावास में ड़ाल दिया। आचार्य चणक महामंत्री शकटार के सच्चे मित्र थे। अपने मित्र का अपमान व सम्राट का दुर्व्यवहार वे सह नहीं सके। उन्होंने प्रजा को साथ लेकर धननन्द का प्रबल विरोध किया। धननन्द ने उन्हें मरवा डाला। उनका गुरुकुल बिखर गया। उनके पीछे पत्नी व एक पुत्र बचे थे। कुछ ही दिनों में भूख व विवशता के कारण पत्नी भी चल बसी। अब अकेला पुत्र विष्णुगुप्त अनाथ हो गया। राजद्रोही का पुत्र होने के नाते विष्णु को न तो किसी ने पढ़ाया और न किसी ने उन्हें भिक्षा ही दी। फिर भी विष्णु ने हार नहीं मानी। उसे अपने पिता पर गर्व था। विष्णु स्वयं को चणक का पुत्र चाणक्य कहलाने में गर्व अनुभव करते थे। यही कारण है कि विश्व उन्हें विष्णुगुप्त के नाम से कम और चाणक्य के नाम से अधिक जानता है।
अनाथ विष्णुगुप्त अध्ययन हेतु तक्षशिला आ गया। तक्षशिला विद्यापीठ में प्रवेश लेकर राजनीति शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया। मेधावी तो था ही, आठ वर्ष में अध्ययन पूर्ण कर वहीं आचार्य बन गया। आचार्य चाणक्य का मानना था – “आचार्य कभी साधारण नहीं होता, प्रलय और निर्माण उसकी गोद में खेलते है।” इसे उन्होंने चरितार्थ कर दिखाया। वे देख रहे थे कि धननन्द जैसे विलासी तथा आततायी सम्राटों के कारण प्रजा का शोषण हो रहा है, संस्कृति का क्षरण हो रहा है, फलस्वरूप राष्ट्र दुर्बल हो रहा है। ऐसा दुर्बल राष्ट्र कभी भी परकीय आक्रमण का शिकार बन सकता है। इस स्थिति में विद्यापीठों को आगे आकर राष्ट्र को संगठित करना चाहिए।
ऐसे समय में ग्रीक योद्धा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उस समय भारत असंगठित था। छोटे-बड़े सभी राजा परस्पर झगड़ रहे थे, फलत: उनका पराभव हुआ तथा प्रजा का घोर विनाश हुआ। किन्तु आचार्य चाणक्य एवं तक्षशिला के विद्यार्थियों ने घूम-घूम कर राष्ट्रप्रेम की ऐसी अलख जगाई कि सिकन्दर उत्तर पश्चिमी प्रदेश से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका और वापस लौट गया। लौटते समय मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो गई।
इस विदेशी आक्रमण से चाणक्य ने राष्ट्र को संगठित करने की अनिवार्य आवश्यकता को समझ लिया था। सबसे पहले अपने विद्यार्थियों को ही विदेशी आक्रांता के विरुद्ध लड़ने हेतु तैयार किया। ऐसे घोर संकट के समय वे मगध सम्राट धननन्द को समझाने गये, किन्तु अपने सत्ता मद में चूर धननन्द ने सहयोग देना तो दूर उल्टा आचार्य चाणक्य को ही अपमानित कर निकाल दिया। चाणक्य ने उस समय खुल गई अपनी शिखा को तब तक न बाँधने की प्रतिज्ञा कर ली, जब तक वे धननन्द को पाठ न पढ़ा दें।
सिकन्दर के आक्रमण से बहुत पहले ही चाणक्य ने एक बालक का चयन कर लिया था। एक बार उन्होंने देखा कुछ बालक खेल रहे हैं। उनमें से एक बालक उनका नेता बना हुआ था, शेष सभी उसका आदेश मान रहे थे। उस खेल में चाणक्य ने देखा कि उस बालक में एक सम्राट बनने की सम्भावनाएँ हैं। वे उसे अपने साथ तक्षशिला ले जाना चाहते थे। उन्होंने बालक के बारे में जानकारी की तो पता चला कि यह बालक चन्द्रगुप्त भेड़-बकरियाँ चराने वाले चरवाहा का भानजा है। चाणक्य ने उसके मामा से उसे तक्षशिला पढ़ने के लिए भेजने की बात की, परन्तु चन्द्रगुप्त का मामा बिना शुल्क लिए उसे भेजने को तैयार नहीं था। चाणक्य को बड़ा आश्चर्य हुआ, किन्तु वे चन्द्रगुप्त के विकास की सम्भावनाओं को नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। इसलिए अपने अमूल्य ग्रंथ को बेचकर धन प्राप्त किया, प्राप्त धन उसके मामा को दिया और चन्द्रगुप्त को तक्षशिला ले आए।
तक्षशिला में आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की एक भावी सम्राट के नाते शिक्षा-दीक्षा शुरु की। राष्ट्रभक्ति की प्रखर भावना, संगठन कुशलता, युद्धकला, धूर्त व शठों की टेड़ी चालों को समझना, उन्हें उनकी ही चाल में फँसाना, ये सब उसकी शिक्षा के अंग थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त को सम्राट के समर्थ विकल्प के रूप में निखार कर आचार्य ने मगध विजय का निश्चय किया। मगध में आने से लेकर धननन्द को सत्ता से च्युत करने तक के रोचक घटनाक्रम से आप सभी परिचित हैं, फिर भी मैं स्मरण करवा देता हूँ।
एक ओर चाणक्य ने मगध के भ्रष्ट सेनापति को लालच में फँसाकर मरवा दिया। समर्थ गुप्तचरों, अमात्य व सेनाध्यक्ष को अपने पक्ष में कर लिया। दूसरी ओर मगध के आचार्यों को संगठित कर उन्हें जन मानस के प्रबोधन कार्य में लगा दिया। इस प्रकार सम्राट धननन्द के सारे सुरक्षा कवच नष्ट कर उसे भयभीत कर दिया। मगध के राजकुल और सेना में अन्तर कलह पैदा करवा कर सम्पूर्ण राज्यवंश का उच्छेद करवा दिया, सम्राट धननन्द को निष्कासित होने के लिए विवश कर दिया। पीछे धननन्द की पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ करवा कर चन्द्रगुप्त का सुरक्षा कवच अभेद्य बना दिया। इस प्रकार राज्याभिषेक का मार्ग कंटक रहित बनाकर उन्होंने चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक करवाया। बचपन के एक गडरिये को विशाल मगध साम्राज्य का सम्राट बना देने का बूता मात्र आचार्य चाणक्य में ही था।
विलासी व अत्याचारी धननन्द को सिंहासन से हटाकर चन्द्रगुप्त को सिंहासन पर बिठाने तक के कालखंड में वे स्वयं महा आमात्य के पद पर रहे। राज्य का एक-एक विभाग सुयोग्य व्यक्तियों के अधीन किया। धननन्द के विश्वस्त किन्तु अपने घोर शत्रु राक्षस को साम, दाम व भेद का प्रयोग कर जीत लिया और उसे अपना स्थान देकर महा आमात्य बनाया।
उन्होंने राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखा, राष्ट्र की रक्षा आचार्यों के हाथ में हैं, सिद्ध कर दिखाया। तत्पश्चात वे स्वयं पुन: गुरुकुल के आचार्य बन गये और ज्ञान साधना में रम गये। एक आचार्य के नाते उनका स्पष्ट मत था कि “जो शिक्षा यह नहीं सिखाती कि राष्ट्र सर्वोपरि है, वह शिक्षा व्यर्थ है उसे रोक देना चाहिए। आज आचार्यों को उनके पदचिन्हों पर चलने की सर्वाधिक आवश्यकता है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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