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भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-16 (आदर्श विद्यार्थी)

– वासुदेव प्रजापति

“विद्यार्थी” शब्द विद्या और अर्थी इन दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है – विद्या(ज्ञान) प्राप्त करने वाला। अर्थात् जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, जो जिज्ञासु है, वह विद्यार्थी है। ज्ञान श्रेष्ठ है, ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान को छोड़कर केवल धन, प्रतिष्ठा या सत्ता चाहने वाला कभी विद्यार्थी नहीं हो सकता। जो अपने व जगत के कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, वही सच्चा विद्यार्थी है।

विद्यार्थी साधना करे

विद्या प्राप्त करने के लिए साधना करनी पड़ती है। साधना करने वाले को सुख व आराम छोड़ना पड़ता है, तथा सुख चाहने वाले को विद्या छोड़नी पड़ती है। यह सुभाषित इसी भाव को बतलाता है।

सुखार्थी चेत् त्यजेत विद्याम् विद्यार्थी चेत् त्यजेत सुखम्।

सुखार्थिन: कुतो विद्या विद्यार्थिन: कुतो सुखम्।।

अर्थात् सुख चाहने वाले को विद्या छोड़ देनी चाहिए। विद्या चाहने वाले को सुख छोड़ देना चाहिए। क्योंकि सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख प्राप्त नहीं हो सकता।

इसलिए विद्यार्थी सुखशैया पर नहीं सोता, मिष्टान्न या भाँति-भाँति के पकवान नहीं खाता, मनोरंजन में समय नष्ट नहीं करता अपितु मन को साधने में समय लगाता है, तभी विद्या प्राप्त होती है।

विद्यार्थी सुपात्र बने

विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने के लिए धन या उच्च कुल नहीं चाहिए अपितु विशेष गुण चाहिए। इन गुणों के कारण विद्या प्राप्ति की पात्रता प्राप्त होती है। श्रीमद् भगवद् गीता में वे गुण बतायें हैं –

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:

अर्थात् जिस विद्यीर्थी में श्रद्धा, तत्परता, और इन्द्रियसंयम् है, वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है। श्रद्धा किन-किन में? ज्ञान में श्रद्धा, ज्ञान देने वाले में श्रद्धा और अपने आप में श्रद्धा होनी चाहिए।

तत्परता अर्थात् नित्य सिद्धता, ज्ञान प्राप्त करने के लिए सदैव तैयार रहना, आठों याम (प्रहर) तैयार रहना, तत्परता है।

इन्द्रिय संयम से तात्पर्य है, मौज- शौक का सम्पूर्ण त्याग। अपनी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखना इन्द्रिय संयम है। यह ज्ञान प्राप्त करने की सबसे बड़ी पात्रता है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया

अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिए, परिप्रश्न पूछना चाहिए और सेवा करनी चाहिए।

प्रणिपात करना अर्थात् अपने गुरु (शिक्षक) को प्रणाम करना। प्रणाम तीन प्रकार से किया जाता है – दोनों हाथ जोड़कर, खड़े-खड़े चरण छूकर तथा उनके समक्ष भूमि पर लैट कर साष्टांग अथवा दण्डवत् प्रणाम करना। प्रणाम अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार किया जाता है। इसके साथ गुरु के समक्ष भाषा, वेशभूषा एवं व्यवहार में विनम्रता रहनी चाहिए। विनम्रता होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है।

परिप्रश्न से तात्पर्य है, उत्सुकता पूर्वक जानने के लिए किया गया प्रश्न। भारतीय परम्परा में जिज्ञासा के लिए पूछे गये प्रश्न ही ज्ञान सरिता के प्रवाह का उद्गम है। अत: विद्यार्थी को परिप्रश्न अवश्य करने चाहिए।

सेवा करना भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक गुण है। ज्ञान देने वाले के प्रति विनम्र रहते हुए उनकी सेवा करनी चाहिए। लोकभाषा में प्रचलित कहावत है – “करो सेवा पाओ मेवा”। अर्थात् सेवा करने से मीठा फल मिलता है। इसलिए विद्यार्थी को सेवापरायण होना ही चाहिए।

विद्यार्थी पंचलक्षणम्

विद्यार्थी में पाँच लक्षण होने चाहिए। इस श्लोक में वे पाँच लक्षण बतायें हैं –

काकचेष्टा बको ध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च।

अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।

विद्यार्थी में वे पाँच लक्षण ये हैं –

१. उसे कौए की भाँति तत्पर होना चाहिए, उसकी दृष्टि से कुछ भी छूटना नहीं चाहिए।

२. उसे मछली पकड़ने वाले बगुले के समान एकाग्रता का धनी होना चाहिए।

३. उसकी निद्रा श्वान (कुत्ते) जैसी होनी चाहिए। अर्थात् हल्की आहट होते ही वह जग जाय।

४. वह अल्प आहारी हो। अर्थात् कम खाने वाला हो। खाने का सम्बन्ध निद्रा से है।

५. वह गृहत्यागी हो। अर्थात् घर की मोह-माया और सुख-साधनों में फसने वाला न हो।

जिसे विद्या प्राप्त करनी है, उसे ये पाँचों बातें व्यवहार में अवश्य लानी चाहिए।

विद्यार्थी के करणीय कार्य

आज परिस्थितियाँ बदल गईं हैं, इसलिए आज के विद्यार्थी के लिए आज के सन्दर्भ में विचार करना ही अधिक सार्थक है। आज के सन्दर्भ में एक विद्यार्थी के लिए अधोलिखित कार्य करणीय हैं –

१. विद्यार्थी को प्रात: जल्दी उठने और जल्दी सोने की आदत डालनी चाहिए। प्रात: ब्रह्ममुहूर्त अध्ययन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय है।

२. नित्य व्यायाम करना, मैदानी खेल खेलना, श्रम करना, शरीर को स्वच्छ रखना एवं पौष्टिक आहार लेने जैसी अच्छी आदतें डालकर अपना शरीर स्वस्थ एवं बलवान बनाना चाहिए।

३. आज के विद्यार्थी को टीवी, मोबाइल, मोटर साइकल, होटल, मित्रों के साथ मौज-मस्ती, व्यसन, तामसी भोजनादि आकर्षणों से अपने मन को हटाकर उसे ज्ञानप्राप्ति के अनुकूल बनाना चाहिए।

४. नित्य ओँकार-उच्चारण, मंत्रपाठ, ध्यान-प्राणायाम का अभ्यास कर अपनी प्राणशक्ति बढ़ानी चाहिए और अपने मन को नियंत्रित कर एकाग्रता लानी चाहिए।

५. प्रतिदिन स्वाध्याय, सेवा, विनययुक्त व्यवहार से बुद्धि एवं चित्त को शुद्ध बनाना चाहिए।

इन सभी करणीय कार्यों को करके विद्यार्थी अच्छी विद्या प्राप्त कर सकता है। आज के समय में यदि परिवार और विद्यालय अंकों (मार्क्स) के पीछे न भागकर इन गुणों को लाने के लिए प्रयत्नशील हों, उन्हें प्रेरणा दें, उनका मार्गदर्शन करें और यथायोग्य उनका सहयोग करे तो हमारे विद्यार्थी श्रेष्ठ विद्या प्राप्त कर उत्तम फल प्रदान कर सकते हैं।

आओ! हम आदर्श विद्यार्थी का परिचय इस कथा के माध्यम से पायें।

समावर्तन-संस्कार

कथा आरम्भ करने से पूर्व मैं आपको समावर्तन-संस्कार का अर्थ बताता हूँ। ब्रह्मचारी जब विद्या प्राप्त करने के लिए गुरुकुल में जाता था तब गुरु उसका विद्यारम्भ संस्कार करते थे। जब शिष्य विद्या पूर्ण कर लेता था तब गुरु उसका समावर्तन-संस्कार करते थे और उसे घर जाने की आज्ञा देते थे। इस संस्कार का महत्त्व बताने वाली कथा इस प्रकार है –

कमल के पुत्र का नाम था, उपकोसल। उपकोसल सत्यकाम जाबाल के यहाँ ब्रह्मचर्य ग्रहणकर अध्ययन करता था। बारह वर्षों तक उसने अपने आचार्य सत्यकाम जाबाल एवं अग्नियों की मनोयोग पूर्वक उपासना की। उसने बारह वर्षों तक एक आदर्श विद्यार्थी के रूप में साधक का जीवन जीते हुए विद्या प्राप्त की। आचार्य ने अन्य सभी ब्रह्मचारियों का समावर्तन-संस्कार कर दिया और उन्हें घर जाने की आज्ञा दे दी। परन्तु उपकोसल का संस्कार नहीं किया।

उपकोसल बड़ा दुखी हुआ। गुरु माँ की दृष्टि में तो वह उत्तम विद्यार्थी था। इसलिए गुरु माँ को उस पर दया आ गई। उन्होंने अपने पति सत्यकाम जाबाल से कहा – इस ब्रह्मचारी ने बड़ी तपस्या की है, ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए विद्याध्ययन किया है। साथ में आपकी तथा अग्नियों की विधिपूर्वक परिचर्या भी की है। अतएव कृपया इसको उपदेश कर इसका भी समावर्तन-संस्कार कर दीजिए। परन्तु सत्यकाम ने पत्नी की बात को अनसुना कर दिया। वे उसकी योग्यता को पहचान चुके थे, परन्तु उसे अभी और पकना चाहते थे। इसलिए बिना कुछ कहे, वे कहीं अन्यत्र यात्रा में चले गये।

उपकोसल को इससे बड़ा क्लेश हुआ। उसने भोजन छोड़ दिया, गुरु माँ ने कहा – “ब्रह्मचारी तुम भोजन क्यों नहीं करते?” उसने कहा – “माँ, मुझे बड़ा मानसिक क्लेश है, इसलिए  मैं भोजन नहीं करूँगा।”

उधर अग्नियों ने सोचा – इस तपस्वी ब्रह्मचारी ने मन लगाकर हमारी बहुत सेवा की है। अतएव उपदेश देकर इसके मानसिक क्लेश को मिटा देना चाहिए। ऐसा विचार करके उन्होंने उपकोसल को ब्रह्मविद्या का यथोचित उपदेश दे दिया।

कुछ दिनों बाद उसके आचार्य यात्रा से लौटे। इधर उपकोसल का मुखमंडल ब्रह्मतेज से दमक रहा था। आचार्य ने पूछा – “सौम्य! तेरा मुख ब्रह्मवेत्ता जैसा दीख रहा है; बता तुझे किसने ब्रह्म का उपदेश किया?” उपकोसल ने बड़े संकोच से सारा वृतान्त कह दिया।

सारा वृतान्त सुनकर आचार्य समझ गये कि अब पकाई पूरी हो गई है। तब उन्होंने उपकोसल से कहा – “यह उपदेश तो अलौकिक नहीं है। अब मुझसे उस अलौकिक ब्रह्मतत्त्व का उपदेश सुन, जिसे भली प्रकार जान लेने पर पाप और ताप प्राणी को स्पर्श भी नहीं कर पाते, जैसे कमल के पत्ते को जल।”

इतना कहकर आचार्य ने उपकोसल को ब्रह्मविद्या का रहस्यमय उपदेश किया और समावर्तन-संस्कार करके उसे घर जाने की आज्ञा दी। जो विद्यार्थी उपकोसल की भाँति ब्रह्मचारी बन साधक जीवन जीते हैं, वे ही श्रेष्ठ विद्या प्राप्त करते हैं, अन्य तो लौकिक शिक्षा प्राप्त कर ही घर लौट जाते हैं।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-15 (ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता)

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