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भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-4 (ज्ञान के विविध रूप)

 – वासुदेव प्रजापति

इससे पूर्व हमने ज्ञान का अर्थ जाना, ब्रह्म क्या है, यह भी जाना तथा ब्रह्म ज्ञान ही परमज्ञान है इसके साथ-साथ अज्ञान को भी समझा। हमने ज्ञान की पवितत्रता जैसी नई-नई जानकारियाँ प्राप्त की। आज हम ज्ञान के आयामों के अन्तर्गत मुख्य रूप से लौकिक ज्ञान को जानेंगे।

ज्ञान के आयाम : अव्यक्त परमात्मा इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ। यह सृष्टि उसी परमात्मा का व्यक्त रूप है। जिस प्रकार परमात्मा का व्यक्त रूप सृष्टि है, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान का व्यक्त रूप सृष्टिज्ञान है अर्थात् ज्ञान के दो आयाम हैं। पहला ब्रह्मज्ञान और दूसरा सृष्टि ज्ञान। इस सृष्टिज्ञान को हम बोलचाल की भाषा में लौकिक ज्ञान भी कहते हैं।

लौकिक ज्ञान : इस लोक का ज्ञान ही लौकिक ज्ञान है। इस लोक को जानने के लिए भगवान ने हमें कुछ साधन दिये हैं, ये साधन हैं- कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्वि, अंहकार व चित्त। इन्हीं साधनों के माध्यम से हम यह लौकिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। इन साधनों का जैसा रूप, वैसा ही ज्ञान का रूप बन जाता है। अर्थात् जैसा साधन वैसा ज्ञान।

कर्मेन्द्रियाँ : कमेंन्द्रियाँ क्रिया करती हैं, जैसे पैर चलते हैं, हाथ वस्तुओं को पकड़ते हैं इत्यादि। क्रिया करने में कुशलता होना आवश्यक है। कुशलता से ही क्रिया अच्छी प्रकार की जाती है। अतः कर्मेन्द्रियों के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप कुशलता है।

ज्ञानेन्द्रियाँ : ज्ञानेन्द्रियों का काम है, संवेदनाएँ प्राप्त करना। जैसे आँख एक ज्ञानेन्द्री है, आँख का काम देखना है। आँख ने किसी पुष्प को देखा, पुष्प में क्या देखा? उसका रंग देखा, उसका रूप देखा और उसका आकार देखा। किस रूप में देखा? तरंगों के रूप में देखा, संवेदनों के रूप में देखा। अत: ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप संवेदन है।

मन : जानने के साधनों में मन एक प्रमुख साधन है। मन क्या करता है? मन विचार करता है। किसका विचार करता है? ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त संवेदनओं का विचार करता है। इसलिए मन के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप विचार है।

बुद्धि : बुद्धि का काम विवेक करना है। विवेक का अर्थ सही-गलत की पहचान करना। मन ने जो विचार किया है, वह अपूर्ण है या पूर्ण है, सही है या गलत है, हितकर है या अहित करने वाला है, इसका पता विवेक से लगता है। पदार्थों के गुणधर्म का ज्ञान भी विवेक कहलाता है। इसे हम विज्ञान कहते हैं, यही पदार्थ विज्ञान है। इस अर्थ में बुद्धि के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप विवेक है।

अंहकार : अंहकार को हम घमंड के अर्थ में जानते हैं, किन्तु अंहकार ज्ञान के साधनों के रूप में एक कर्ता हैं अर्थात् ज्ञान को प्राप्त करने वाला है। यदि अंहकार नहीं होगा तो ज्ञान कौन प्राप्त करेगा? ज्ञान निराश्रित हो जायेगा। अतः अंहकार के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप कर्तापन है।

चित्त : चित्त पर हमारे प्रत्येक कार्य का संस्कार होता है। ये संस्कार चित्त में स्मृति के रूप में संगृहीत रहते हैं। अतः इस स्तर पर ज्ञान का स्वरूप संस्कार है।

इस तरह हमने जाना कि भिन्न-भिन्न स्तर पर ज्ञान के स्वरूप भी भिन्न-भिन्न हैं। कहीं पर ज्ञान कुशलता है तो कहीं पर संवेदन है। कहीं पर ज्ञान विचार है तो कहीं पर विवेक है। कहीं पर वह कर्ताभाव है तो कहीं पर ज्ञान संस्कार रूप में है। ये ज्ञान का लौकिक स्वरूप है, किन्तु मूल रूप में वह ब्रह्मज्ञान ही है। ब्रह्मज्ञान इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अंहकार व चित से होने वाले ज्ञान से परे है, और श्रेष्ठ है। यह ब्रह्मज्ञान कुशलता-संवेदन, विचार-विवेक, कर्तापन व संस्कार से प्राप्त नहीं होता, यह तो समाधि जनित अनुभूति से प्राप्त होता है।

दिशा मोड़ना : भौतिक जगत में बुद्धि के स्तर पर हाने वाले ज्ञान को विज्ञान कहा जाता है इससे हमें लौकिक ज्ञान ही प्राप्त होता है, ब्रह्मज्ञान नहीं । किन्तु जब हम लौकिक ज्ञान प्राप्त करने की सम्पूर्ण यात्रा की दिशा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की ओर मोड़ देते हैं तो सही दिशा में आगे बढ़ते हैं। ब्रह्मज्ञान तक पहुँचना ही सारे लौकिक ज्ञान का परम उद्देश्य है। परन्तु जब हम लौकिक ज्ञान प्राप्त करने की दिशा को ब्रह्मज्ञान की ओर मोड़ नहीं पाते तो मात्र भौतिक विज्ञान में ही उलझ कर रह जाते हैं, जीवन में पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाते।

देह और मैं

रमण की आयु उस समय लगभग सत्रह वर्ष की रही होगी। एक बार वे अपने काका के घर की छत पर सो रहे थे कि अचानक उन्हे दर्द होने लगा। दर्द बढ़ता गया, उन्हे ऐसा लगने लगा कि उनकी मृत्युवेला आ गई है। वे बड़ी गंभीरता पूर्वक सोचने लगे कि यदि उनकी मृत्यु हुई तो उनका यह शरीर नष्ट होगा अथवा उसमें वास करने वाले ‘मैं’ का नाश होगा? किन्तु इसका उत्तर मिलेगा कैसे? क्योंकि इसका अनुभव उन्हें नहीं था। इसलिए वे सीधे-सपाट लेट गये, अपने हाथ-पैर फैला दिये और सोचने लगे कि अब मृत्यु उन्हें ग्रसने ही वाली है।

मृत्यु की प्रतीक्षा करते-करते वे विचार करने लगे कि जब उनकी मृत्यु होगी तो लोग उनकी मृत देह को शमशान में ले जायेंगे और उसे जलायेंगे। देह जलकर राख हो जायेगी। अब उनके मन में फिर प्रश्न उठा कि क्या ‘मैं’ उस अवस्था में भी रहेगा, या वह भी देह के साथ जल जायेगा?

रमण ने एकाग्र होकर निर्मल चित्त से उत्तर खोजना शुरु किया जो कुछ समय के बाद उनकी अन्तरात्मा ने इसका उत्तर दिया, “मृत्यु शरीर को मार सकती है, मैं को नहीं, क्योंकि मैं तो अमर है, मृत्यु की सीमा से परे है। इसलिए हाड-माँसवाली इस देह का मोह त्यागना ही चाहिए।” उनकी अन्तरात्मा के उत्तर ने उनके अन्तर के अज्ञान रूपी अहंकार का नाश कर दिया। अज्ञान के नष्ट होने से उन्हे आत्मज्ञान हो गया। अब भला मृत्यु उनके पास कैसे आ सकती थी, उस पर तो उन्होंने विजय प्राप्त कर ली थी।

इस बोध को ही हमारे यहाँ अनुभूति से प्राप्त ज्ञान बतलाया है। यह अनुभूति का ज्ञान, ज्ञान के अन्य स्वरूपों से श्रेष्ठ माना गया है। यह श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त होते की रमण तत्क्षण उठ बैठे और उसी समय घर से निकलकर अरुणाचल के मन्दिर की ओर चल पडे़, जहाँ उन्होंने घोर तपस्या की। इस तपस्या के फल स्वरूप पहले वे ‘रमण स्वामी’ और बाद में ‘महर्षि रमण’ कहलाये।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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Source : Rashtriya Shiksha