हमारी भारतीय सनातन संस्कृति का उद्घोष है – अस्माकं वीराः उत्तरे भवन्तु (१०.१०३ ऋग्वेद) अर्थात् हमारे वीर-वीरांगनायें विजयी होवें। इस गौरवपूर्ण संस्कृति के एक छोर पर गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोषा जैसी विदुषियों की लम्बी धारा है, वहीं दूसरी ओर, इसी पावन संस्कृति की धर्मध्वजवाहिका कुन्ती, सैरन्ध्री, चेनम्मा, रुद्रमाम्बा, दुर्गावती, लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं की एक लम्बी शृंखला दिखाई देती है।
ऐसी वीरांगनाओं की स्वर्णिम आभा से भारतीय इतिहास सदैव से ही देदीप्यमान हो रहा है। उनमें भी रानी दुर्गावती के नाम का स्मरणकर समस्त आर्यावर्त, विशेषतः मध्य भारत रोमांचित हो उठता है। आज रानी दुर्गावती के 500वें जन्मदिवस पर हम सभी भारतीयों को उनके विचारों को आत्मसात् कर उन्हें विनम्र श्रद्धासुमन समर्पित करना चाहिए।
रानी दुर्गावती का जन्म 05 अक्टूबर, 1524 को शारदीय नवरात्र की दुर्गाष्टमी को कालिंजर के किले में चन्देल राजपूत राजा कीरतराय के घर हुआ। दुर्गाष्टमी के अवसर पर प्रसूत इस कन्या का नाम भी दुर्गावती ही रखा गया। पिता कीरतराय ने बेटी दुर्गा को शस्त्र व शास्त्र की परम्परागत शिक्षा उपलब्ध करवाई, परिणामतः दुर्गावती लोक-व्यवहार व प्रशासन में सिद्धता को प्राप्त हुईं। उनका विवाह गोंडवाना साम्राज्य के राजा दलपतराय के साथ सुसम्पन्न हुआ, किन्तु दुर्भाग्य ने रानी को असमय विधवा बना दिया और विवाह के प्रारम्भिक वर्षों में ही दलपतराय काल-कवलित हो गये।
रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बिठाते हुए उसके संरक्षक के तौर पर राज्य को संभाला। सोलहवीं शताब्दी में मुगलों ने भारतीय शासकों को पराजित करते हुए उत्तर भारत पर लगभग कब्जा कर लिया था, किन्तु माँ भारती की कुछ वीर सन्तानें अभी भी मुगल आततायियों से लोहा ले रहा था। अकबर की ओर से रानी दुर्गावती को “सन्धि या युद्ध” का एक संदेश मिला, जिसे रानी ने “युद्ध” के रूप में सहर्ष स्वीकारा, किन्तु दासता मानने से प्रत्यक्षरूपेण मना कर दिया।
इस प्रकार रानी दुर्गावती ने मुगल आततायी अकबर को सीधे चुनौती देते हुए, उसके साथ “शठे शाठ्यं समाचरेत्” की नीति का पालन किया। कालांतर में युद्ध हुआ और रानी दुर्गावती व उनके सहचरों ने इस युद्ध में वीरता दिखाते हुए समरांगण में बलिदान दिया। उनके विषय में आम जनमानस कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाता है- “दुर्गावती जब रण में निकली, हाथों में थी तलवारें दो । धरती कांपी आकाश हिला, जब हिलने लगी तलवारें दो।।”
परिणाम चाहे जो भी हो, किन्तु उसके बाद से आज वर्ष 2024 तक (पिछले 500 वर्षों से अब तक) रानी के विचारों का प्रवाह मध्य भारत ही नहीं, अपितु पूरे भारत को आप्लावित कर रहा है। वर्तमानकालिक 21वीं शताब्दी में, रानी दुर्गावती की उक्ति अत्यन्त प्रासंगिक है – “मृत्यु तो सभी को आती है आधार सिंह, परन्तु इतिहास उन्हें ही याद रखता है, जो स्वाभिमान के साथ जिए और मरे॥”
रानी दुर्गावती ने अपने शौर्य व पराक्रम के साथ-साथ लोक-प्रशासन में भी महारत हासिल की थी। वह अपने राज्य की संस्कृति का सततरूपेण संरक्षण करती थी। रानी दुर्गावती ने अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए आठ (8) मंत्रियों की एक टोली सुगठित की थी, जिसे “अष्ट–आभूषण” के नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार आज की संसदीय शासन प्रणाली में विविध मंत्रालयों के कार्य हेतु एक मंत्री-परिषद् होती है। तदनुरूप रानी दुर्गावती के शासन काल में विविध विभागों के विभागाध्यक्ष अष्ट आभूषण होते थे, इनका कार्य भी आज के विविध मंत्रालयों में बैठे कैबिनेट मंत्रियों के समकक्ष ही होता था।
रानी दुर्गावती ने लोक-कल्याणार्थ विविध तालों का निर्माण कराया, जिनसे भूजल पुनर्संभरण (Ground Water Recharge) सुचारू रूप से होता रहे और जनता को संचित जल का लाभ मिल सके। इनके जल प्रबंधन के विचारों पर आज भी शोधार्थी शोधरत हैं। प्रसिद्धि है कि इन्होंने अपने राज्य में 52 तालाबों व अन्य वावलियों का निर्माण कराया, जिनमें चेरिताल व आधार ताल उल्लेखनीय हैं।
रानी ने जाति-पाति की व्यवस्था से ऊपर जाकर सर्वसमावेशी व समानतापूर्ण अधिकारों का आवंटन व सबकी भागीदारी सुनिश्चित की। उनकी सेना में गोंड, राजपूतों के साथ साथ अन्य मतों के अनुयायी भी अपनी सेवाएं देते थे। रानी ने सनातन संस्कृति के संरक्षणार्थ भी अनेक कार्य किए, जैसे – नर्मदा को आचमनीय बनाये रखा, नदियों पर पूजा-अर्चना की व्यवस्था व घाटों का सौंदर्यीकरण, मंदिरों का जीर्णोद्धार, जाति के स्थान पर दक्षता को सम्मान प्राप्त करना, मंदिरों का नवनिर्माण व उनमें श्री राम, भद्रकाली, विष्णु, शिव की प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा आदि की।
अब हम यदि महारानी दुर्गावती के विचारों को आधार बनाकर आज की सामाजिक दिशा व दशा को देखते हैं, तो यह अनुभव होता है कि आधुनिक समय में महारानी के लोककल्याणार्थ किये गये जल-प्रबन्धन के विचार, नदियों का संरक्षण व उनकी पवित्रता कायम रखना, धार्मिक स्वतंत्रता व संस्कृति का संरक्षण, जाति-पाति से पृथक् दक्षता आधारित प्रशासन की संरचना जैसी व्यवस्था अनुकरणीय है।
एक महिला शासिका होने के कारण भले ही इतिहासकारों के एकपक्षीय लेखन ने उन्हें उपेक्षित किया हो, किन्तु आज उनके 500वें जन्मदिवस पर भारत उन्हें अपने हृदय में स्थान दे रहा है। रानी दुर्गावती के विचारों पर आज निरन्तर शोध हो रहे हैं और यह आवश्यक भी हैं, ये विचार विविध राज्य सरकारों और केन्द्र सरकारों के लिए भी निश्चितरूपेण अनुकरणीय हैं।
(लेखक – डॉ. पवन तिवारी, विद्याभारती पूर्वोत्तर क्षेत्र के क्षेत्र संगठन मंत्री हैं)