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भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-1 (जानें ‘ज्ञान’ को)

-वासुदेव प्रजापति

ज्ञान को जानने से पूर्व एक बात और जाननी होगी, वह है भारतीय शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद। अनेक भारतीय शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद उसके पूर्ण तथा वास्तविक अर्थ को व्यक्त नहीं करते, जैसे- धर्म व राष्ट्र के लिए उपयोग किये जाने वाले शब्द ‘रिलिजन’ एवं ‘नेशन’ इनके अर्थ व्यक्त नहीं कर पाते। फलतः हम ज्ञान के मूल तक पहुँच ही नहीं पाते । इसी प्रकार ज्ञान शब्द का अंग्रेजी अनुवाद है ‘नॉलेज’। यह नॉलेज शब्द ज्ञान के पूर्ण अर्थ को नहीं बतलाता। फिर भी हम ज्ञान के लिए नॉलेज शब्द का ही प्रयोग करते हैं और नॉलेज के सीमित अर्थ को ही ज्ञान का अर्थ मानते हैं। यदि हम सही एवं पूर्ण अर्थ जानना चाहते हैं तो हमें अपूर्ण अर्थ बताने वाले इन अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर भारतीय शब्दों को अपनाकर उनके मर्म को समझना होगा।

ज्ञान का अर्थ

ज्ञान का अर्थ है, श्रुतम्। हम ज्ञान का अर्थ करते हैं, जानना। जानना कहने मात्र से अर्थ स्पष्ट नहीं होता। आप स्वयं विचार करें, क्या पाठ्यपुस्तकों को जानना मात्र ज्ञान है? क्या ‘जनरल नॉलेज’ ही ज्ञान है? क्या ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त जानकारी, यथा देखना, सुनना,  सूँघना, चखना और स्पर्श करना मात्र ही ज्ञान है? नहीं । हमारे शास्त्र कहते हैं कि ज्ञान इस जानकारी से परे है, अधिक है, गहन है और व्यापक है।

भारत की सभी अवधारणाएँ अध्यात्म से निकली हैं। अतः ज्ञान के अर्थ को समझना है तो हमें अध्यात्म के प्रकाश में ही उसे समझना होगा। इस सृष्टि में वेद ज्ञान के भण्डार हैं। वेद कहते हैं, ‘‘सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्म”। इस वेद वाक्य का अर्थ है कि ब्रह्म सत्य स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है और अनंत है। जब ब्रह्म ही ज्ञान है तो ब्रह्म को जानना ही पूर्ण ज्ञान है। इसका सीधा सा अर्थ हुआ ज्ञान अर्थात् ब्रह्मज्ञान

ब्रह्म क्या है?

ब्रह्म वह परमचैतन्य युक्त तत्त्व है, जो सृष्टि की रचना करता है। सृष्टिकर्ता ब्रह्म इस सृष्टि का निमित्त कारण तथा उपादान कारण दोनों है। किसी भी रचना को बनाने वाला अर्थात् उस रचना का कर्ता या स्रष्टा उसका निमित्त कारण होता है। बह्म ही इस सृष्टि को बनाने वाले हैं, इसलिए ब्रह्म ही निमित्त कारण हैं। इसी प्रकार जिससे किसी भी रचना का निर्माण होता है, वह उसका उपादान कारण कहलाता है। यह सृष्टि ब्रह्म से बनी है, इसलिए ब्रह्म ही इस सृष्टि के उपादान कारण हैं। निमित्त कारण और उपादान कारण को अधिक व स्पष्ट समझने के लिए हम मिट्टी के घड़े का उदाहरण लेते हैं। यह घड़ा किसने बनाया? कुम्हार ने। तो कुम्हार इस घड़े का निमित्त कारण हुआ। यह घड़ा किससे बना? मिट्टी से, तो मिट्टी इस घड़े का उपादान कारण हुई।

इस प्रकार घड़े के सृजन में निमित्त कारण कुम्हार तथा उपादान कारण मिट्टी है। किन्तु यह सृष्टि तो ब्रह्म ने बनाई है और अपने में से ही बनाई है इसलिए इस सृष्टि के निमित्त कारण भी ब्रह्म हैं और उपादान कारण भी ब्रह्म ही हैं। जैसे मकड़ी जाला बनाती है तो अपनी लार से ही बनाती है। इसलिए मकड़ी जाले का निमित्त कारण व उपादान कारण दोनों है। ठीक वैसे ही ब्रह्म इस सृष्टि के सृजनहार हैं। जैसे मकड़ी जाला बुनकर स्वयं उस जाले में ही रहती है, ठीक वैसे ही ब्रह्म इस सृष्टि के स्रष्टा हैं और स्वयं इस सृष्टि में विद्यमान रहते हैं। इसे हम इस अर्थ में समझ सकते हैं कि यह सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है। सृष्टि के कण-कण में ब्रह्म व्याप्त है।

इस ब्रह्म को हम आत्मतत्त्व या आत्मा भी कहते हैं। इसे हम परब्रह्म या परमात्मा भी कहते हैं। यह भी मानते हैं कि यह सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है। वेद भी कहते हैं ‘सर्वंखलु इदं ब्रह्म’ अर्थात् सृष्टि के रूप में जो कुछ भी है, वह सब ब्रह्म है। अतः परमात्मा और सृष्टि का स्वरूप जानना ही सही ज्ञान है।

ब्रह्मज्ञान क्या है?

अभी-अभी हमने समझा कि ब्रह्म ने स्वयं में से इस सृष्टि का सृजन किया है। हम सब भी इसी सृष्टि के अंग हैं, इसलिए हमारा भी मूल स्वरूप ब्रह्म ही है। ब्रह्म के स्वरूप को जानना अर्थात् अपने स्वरूप को जानना, क्योंकि हम स्वयं भी ब्रह्म हैं। वेद कहते हैं, ‘अहं ब्रह्मास्मि’। इस तथ्य का ज्ञान होना, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति होना ही ब्रह्मज्ञान है। यही ज्ञान का परम अर्थ है।

हमारे यहाँ प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मज्ञान करवाना ही मुख्य उद्देश्य था। गुरु व्यासराय और शिष्य कनकदास का आख्यान ब्रह्मज्ञान को सरलता से समझने में अत्यन्त उपयोगी है।

गुरु व्यासराय की शिक्षा देने की पद्धति अत्यन्त व्यावहारिक एवं क्रियात्मक थी। एक दिन उन्होंने अपने सभी बालशिष्यों को बुलाया। सबके आ जाने पर उन्हें एक-एक केला दिया और बताया कि इस केले को ऐसे स्थान पर जाकर खाना, जहाँ तुम्हें कोई भी न देख रहा हो।

सभी बाल शिष्य केला पाकर बड़े प्रसन्न हुए और भागे ऐसे स्थान की ओर जहाँ कोई नहीं था। किसी ने पेड़ के पीछे छिपकर केला खाया तो किसी ने चट्टान की ओट में। थोड़ी ही देर में एक को छोड़कर सब के सब केला खाकर खाली हाथ लौट आए। गुरु जी ने पूछा, “सबने केला खा लिया?” “हाँ, गुरुजी” । “कोई आपको देख तो नही रहा था?” “नहीं, गुरुजी” ।

गुरुजी ने सब पर दृष्टि डाली तो उन्हें अपना प्रिय शिष्य दिखाई नहीं दिया। गुरुजी ने पूछा, “किसी ने कनक दास को देखा है क्या?” सब एक साथ बोले, “नहीं गुरुजी” । गुरुजी ने उसकी प्रतीक्षा की। कुछ समय बाद कनक दास चिन्तित मुद्रा में धीरे-धीरे आश्रम की ओर आता दिखाई दिया। जब वह गुरुजी के समक्ष आकर खड़ा हुआ तो सबने देखा कि उसने हाथ में केला ज्यों का त्यों पकड़ा हुआ था। गुरुजी ने पूछा, कनक! तुमने केला क्यों नहीं खाया?” गुरुजी! आपने ही तो कहा था कि केला उस स्थान पर खाना जहाँ कोई न देखे।” तो क्या तुम्हे ऐसा कोई भी स्थान नहीं मिला?” “हाँ, गुरुजी। मुझे ऐसा एक भी स्थान नहीं मिला।” “अच्छामुझे बताओ तुम कहाँ-कहाँ गये?”

कनक बताने लगा, “सबसे पहले मैं एक पेड़ के पीछे गया। वहाँ कोई नहीं था, मैं ज्यों ही केला खाने लगा त्यों ही मैंने देखा कि पेड़ के तने में खड़े भगवान मुझे देख रहे हैं। फिर मैं चट्टान की ओट में गया तो उस चट्टान में भी मुझे भगवान दिखाई दिये। मैं जहाँ-जहाँ भी गया मुझे तो सब में भगवान दिखाई दिये। इसलिए मैं केला खाए बिना ही लौट आया।”

व्यासराय कनकदास का उत्तर सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। कम से कम एक शिष्य को तो कण-कण में भगवान का सही ज्ञान हुआ। “ईश्वर सर्वत्र है और सबको देख रहे हैं” की अनुभूति होना ही सच्चा ज्ञान है। जीव, जगत् और जगदीश में एकात्म दृष्टि होना ही पूर्ण ज्ञान है, परमज्ञान है। यही ज्ञान की भारतीय संकल्पना है, जो नॉलेज में व्यक्त नहीं होती।

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(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

Source : Rashtriya Shiksha