– वासुदेव प्रजापति
अध्यापन ( पढ़ाना )
अध्ययन अर्थात् पढ़ना और अध्यापन अर्थात् पढ़ाना। पढ़ना और पढ़ाना दोनों एक ही क्रिया के दो पद हैं। इन दोनों में पढ़ना मूल क्रियापद है, जबकि पढ़ाना उसका प्रेरक रूप है। विद्यार्थी पढ़ता है और शिक्षक पढ़ाता है। बिना शिक्षक के पढ़ना तो हो सकता है, परन्तु यदि विद्यार्थी नहीं है तो पढ़ाना नहीं हो सकता। अत: आज हम अध्ययन के प्रेरक रूप अध्यापन को भली-भाँति समझेंगे।
अध्ययन की पूर्णता अध्यापन
अध्ययन और अध्यापन ये एक दूसरे से अलग, स्वतन्त्र क्रियाएँ नहीं हैं। अध्ययन की प्रगत अवस्था ही अध्यापन है, अध्यापन करने वाले को अध्यापक कहते हैं। इसलिए अध्यापक को सर्वप्रथम एक उत्तम अध्येता तो होना ही चाहिए। जो उत्तम अध्येता नहीं होता, वह उत्तम अध्यापक भी नहीं बन सकता। एक अध्यापक में यह मूलभूत गुण तो होना ही चाहिए। साथ ही साथ हमारी व्यवस्था भी ऐसी हो कि उत्तम अध्येता ही अध्यापक बनें।
अध्यापन अध्ययन सापेक्ष हो
अध्यापन में दो व्यक्ति एक साथ होते हैं। एक अध्ययन करने वाला अर्थात् पढ़ने वाला विद्यार्थी और दूसरा अध्यापन करने वाला अर्थात् पढ़ाने वाला शिक्षक। अध्ययन यह स्वतन्त्र क्रिया है, परन्तु अध्यापन स्वतन्त्र क्रिया नहीं है। जब तक अध्ययन करने वाला नहीं होता, तक अध्यापन नहीं हो सकता।
अध्यापन करना अर्थात् अध्ययन करने के लिए सब प्रकार की अनुकूलताएँ देना। इसके लिए एक शिक्षक को विद्यार्थी की क्षमता, रुचि, पद्धति व आवश्यकतादि बातें जानना आवश्यक होता है। विद्यार्थी के साथ आन्तरिक सम्बन्ध बनाना और यह सम्बन्ध आत्मीयता का होना चाहिए। इस आत्मीय सम्बन्ध के कारण ही शिक्षक को शासन करने की क्षमता और अधिकार प्राप्त होता है।
अध्यापन कला
अध्यापन करने वाले शिक्षक को अपने अध्ययन का विनियोग विद्यार्थी के लिए किस रीति से किया जाय, इसका विचार करना पड़ता है। शिक्षक सबसे पहले यह विचार करता है कि मैं किस प्रकार अपना अध्ययन विद्यार्थी में संक्राँत कर सकता हूँ? वह अध्येता की क्षमता तथा रुचि जानकर उसके अनुरूप उपाय करता है, इसे ही अध्यापन कला कहते हैं। स्वयं का अध्ययन अध्येता में संक्राँत होने से ही अध्ययन परम्परा बनती है। अध्ययन परम्परा बनने से काल के प्रवाह में ज्ञान नष्ट नहीं होता। इससे स्वयं का अध्ययन पूरी तरह अध्येता में उतरता है और अध्येता इतनी उत्तम रीति से ज्ञान को आत्मसात करता है कि वह ज्ञान उसके व्यक्तित्व को, उसके जीवन को तथा वह जो-जो क्रिया-कलाप करता है और जिन-जिन के सम्पर्क में आता है उन सबको समृद्ध बनाता है।
अध्यापन से राष्ट्रसेवा
विद्यार्थी के बाद में आता है, समाज। अध्ययन समाज के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो, समाज सुसंस्कृत एवं ज्ञानवान बने, समाज जीवन के सब व्यवहार ज्ञाननिष्ठ हों, यह ध्यान रखने का दायित्व भी अध्यापन करने वाले शिक्षक का है। जहाँ अध्यापक होता है, वहाँ तनिक भी अशिष्टता, अकुशलता, अविवेक, अवैज्ञानिकता, असंस्कृतता नहीं हो सकती। समाज जीवन में से इन कमियों को दूर करना ही अध्यापन करने वाले शिक्षक की राष्ट्रसेवा है।
अध्यापन में ज्ञाननिष्ठा
अध्यापन करने वाले का यह कर्तव्य है कि उसका अध्ययन दूषित न हो जाय, इसकी वह सदैव सावधानी रखे। सत्ता, धन, बल के प्रभाव में आकर अर्थात् नेताओं के, धनवानों के अथवा बलवानों के दबाव में आकर वह अपने अध्यापन का न तो दुरुपयोग करे और न दुरुपयोग होने दे। यह ज्ञान के प्रति द्रोह माना जाता है। दबाव के अतिरिक्त मोह-प्रमाद या भोगपरायणता के कारण भी ज्ञानसाधना में खण्ड पड़ने देना भी ज्ञानद्रोह ही है। अत: अध्यापन करने वाले को सदैव सावधान तथा जागृत रहना चाहिए।
अध्यापन नित्यनूतन हो
जब-जब देश-काल व परिस्थितियाँ बदलती हैं, युग बदलता है तब-तब अध्ययन के विनियोग की पद्धति भी बदलती है। मूल तत्त्वों को बिना बदले देश, काल व परिस्थिति के अनुसार अध्यापन पद्धति में योग्य परिवर्तन करने से अध्यापन जीवन्त हो जाता है।
अध्ययन स्वान्त: सुखाय होता है, जबकि अध्यापन सर्वजन हिताय होता है। अध्यापन करने वाला शिक्षक अध्ययनकर्ता अर्थात् विद्यार्थी तो होता ही है। इसलिए सर्वजनहित में स्वान्त: सुख तो स्वत: आ जाता है। विद्यार्थी जब शिक्षक बनता है, तब अध्ययन का विनियोग सर्वजन हिताय करने से वह सबके आदर का पात्र बनता है। उस शिक्षक को आचार्य तथा गुरु आदि शब्दों से सम्बोधित किया जाता है।
अध्यापन की आदर्श स्थिति
एक निष्ठावान और विद्वान शिक्षक में भी कुशलता होना आवश्यक है। कुशलता होने पर ही वह विद्यार्थी को सिखा पाता है। यह कुशलता साधन-सामग्री ढूँढ़ने में, उनका प्रयोग करने में और विद्यार्थी समझा या नहीं, यह जानने में बहुत काम आती है। एक विद्वान और शिक्षक में यही अन्तर होता है। विद्वान केवल विषय को जानता है, जबकि शिक्षक विषय और विद्यार्थी दोनों को जानता है। इसीलिए शिक्षक का ज्ञान विद्यार्थी तक पहुँचता है।
शिक्षक और विद्यार्थी के सम्बन्ध का और अध्यापन प्रक्रिया का अद्भुत उदाहरण दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में इस प्रकार बताया है:-
“चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धा शिष्या: गुरुर्युवा।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्न संशया:।।”
अर्थात् यह तो घोर आश्चर्य है! वटवृक्ष के नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु बैठे हैं। गुरु का मौन व्याख्यान चल रहा है और शिष्यों के सारे संशय दूर हो रहे हैं।
सभी शिक्षकों और विद्यार्थियों की आदर्श स्थिति तो यही होनी चाहिए। सार रूप में यही कहा जा सकता है कि कुशल शिक्षक और समझदार विद्यार्थी मिलकर अध्ययन-अध्यापन को यान्त्रिकता से मुक्त कर उसे जीवन्त बना सकते हैं। ऐसा होने पर ही ज्ञानार्जन सम्भव है और अध्यापन का उद्देश्य ही ज्ञानार्जन है।
आज हम ऐसे आचार्य के जीवन से परिचित होंगे जिन्होंने अद्वेत ज्ञान की प्रतिष्ठा को ही अपना जीवन लक्ष्य बनाया और अपने आचार्यत्व के बल पर उसे प्राप्त भी किया।
आचार्य शंकर
बालक शंकर! इसका जन्म केरल के कालड़ी ग्राम में पिता शिवगुरु एवं माता आर्याम्बा के घर में हुआ। उस समय पूरे देश में बौद्ध धर्म के नाम पर अनाचार फैल रहा था। शंकर के जन्म का प्रयोजन ही इस अनाचार को रोककर अद्वेत का पुरस्कार करना और सनातन हिन्दू धर्म का खोया गौरव पुन: प्राप्त करवाना था।
शंकर ने अपनी बुद्धि की तेजस्विता शिशु अवस्था में ही प्रकट कर दी। मात्र तीन वर्ष की आयु में अक्षराभ्यास, पाँच वर्ष में उपनयन संस्कार और वेदाध्ययन हेतु गुरुकुल जाना, आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों का अध्ययन पूर्ण करना और बालक शंकर से शंकराचार्य बनना, उनकी विलक्षण प्रतिभा का द्योतक है।
मात्र आठ वर्ष की आयु में “नदी में स्नान करते समय मगर द्वारा पैर पकड़ लेने” के दृष्टान्त द्वारा माता की स्वीकृति ले संन्यास ग्रहण किया। अब वे ज्ञानार्जन में जुट गये। तर्क में पारंगत हुए, सांख्य दर्शन पर अधिकार प्राप्त किया, पातंजलि योग दर्शन का विलक्षण ज्ञान तथा भट्ट मीमाँसा के जटिल सिद्धान्तों को सीखा। इस प्रकार बारह वर्ष की आयु तक सभी शास्त्रों में पारंगत हो गये और सोलह वर्ष की आयु में तो उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर अपना भाष्य ही लिख डाला।
आचार्य शंकर ने गुरुकुल में अध्ययन करते समय अपने गुरु से “पतंजलि भगवान के अवतार रूप गुरु गोविन्दपाद का नाम सुना था।” अपनी माता का आशीर्वाद और कुल देवता केशव के दर्शन कर गुरु की खोज हेतु गाँव से प्रस्थान किया और नर्मदा तीर्थ पर स्थित एक गुफा में गुरु गोविन्दपाद को पाया। आचार्य शंकर ने उनके चरणों में बैठकर तीन वर्ष तक अद्वेत की साधना की तथा उपनिषद एवं ब्रह्मसूत्रों का विशेष अध्ययन किया। शंकराचार्य ने जिस अद्वेत ब्रह्मविद्या का प्रचार किया, उसकी गुरु परम्परा स्वयं भगवान नारायण से प्राप्त होती है। नारायण से ब्रह्मा ने, ब्रह्मा से वसिष्ठ ने, वसिष्ठ से पराशर ने, पराशर से वेदव्यास ने, वेदव्यास से शुकदेव ने, शुकदेव से गौडपाद ने, गौडपाद से गोविन्दपाद ने और गोविन्दपाद से आचार्य शंकर ने ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की। इसीलिए हमारी संस्कृति में गुरु और गुरु पम्परा का इतना अधिक महत्त्व है।
उस समय सम्पूर्ण देश में दो प्रकार के मत-मतान्तर फैल रहे थे। एक थे पुरानी परम्परा को नष्ट करने वाले अवैदिक बौद्धादि धर्म। दूसरे वैदिक धर्म की रक्षार्थ उत्पन्न धर्म। इन दोनों के मध्य चल रहे संघर्ष का समाधान ढूँढ़ने के लिए उन्होंने योजना बनाई और उसका केन्द्र भारत के सांस्कृतिक केन्द्र काशी को बनाया। गुरु से आज्ञा ले इस दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। यहाँ काशी में उन्होंने प्रभाकराचार्य पर विजय प्राप्त की। इस विजय में उन्हें प्रभाकर के तेजस्वी पुत्र पृथ्वीधर शिष्य रूप में प्राप्त हुए, बाद में इनका नाम हस्तामलक रखा गया। प्रयाग के निवास काल में उनकी रचना धर्मिता यमुनाष्टक, प्रयागाष्टक, माधवाष्टक, लक्ष्मी, नृसिंह, पंचरत्न, वेदसार एवं शिवस्तोत्र के रूप में प्रकट हुई।
आगे चलकर कुमारिल भट्ट से उनकी भेंट हुई, तब वे गुरुद्रोह का प्रायश्चित करने हेतु भूसे की अग्नि में आत्मदाह कर रहे थे। उन्होंने अपने शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने का सुझाव दिया। शंकराचार्यजी एवं मंडन मिश्र के बीच कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला, अन्त में कर्मकांड़ पर वेदान्त की जीत हुई। परन्तु मंड़न मिश्र की पत्नी भारती ने कहा मैं उनकी अर्द्धांगिनी हूँ, जब तक आप मुझे नहीं जीत लेते तब तक यह जीत अधूरी है। इन दोनों के मध्य सत्रह दिन तक शास्त्रार्थ चला। अन्त में भारती ने बाल संन्यासी से काम सम्बन्धी प्रश्न पूछ लिया, तब आचार्य शंकर ने परकाया प्रवेश कर सभी अनुभव लिए और भारती के प्रश्नों के यथोचित उत्तर दिये। तब भारती ने पराजय स्वीकार कर अपने पति के साथ संन्यास लिया और आचार्य के शिष्य बन गये। तब मंडनमिश्र का नाम सुरेश्वराचार्य हो गया।
शंकराचार्यजी ने भारतीय सनातन धर्म को पूरे देश में फैलाने के लिए चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। ये चार मठ अधोलिखित हैं:-
१. श्रृँगेरी मठ – भारत की दक्षिण दिशा में श्रृँगेरी में स्थित है। इस मठ के पहले मठाधीश आचार्य सुरेश्वर थे, जो उत्तर भारत के थे।
२. गोवर्द्धन मठ – भारत की पूर्व दिशा में उडिसा राज्य की पुरी नगरी में स्थित है। इसके प्रथम मठाधीश पद्मपादाचार्य थे।
३. शारदा मठ – भारत की पश्चिम दिशा में द्वारका पुरी में यह मठ स्थित है। इसके पहले मठाधीश हस्तामलक थे।
४. ज्योतिमठ – यह मठ भारत के उत्तर में बदरीकाश्रम में है। इसके पहले मठाधीश आचार्य तोटक थे, जो दक्षिण भारत के थे।
भारत की एकता बनाये रखने में इन चारों मठों का अमूल्य योगदान है। आपने विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने के लिए उपासना की नई पद्धति “पंचायतन पूजा” प्रारम्भ की। इसमें सूर्य, विष्णु, अम्बिका, गणेश और शिव इन पाँचों देवताओं की संयुक्त पूजा का विधान है। उपासक अपने इष्ट देव को मध्य में रख पूजा करता है।
चारों मठों की स्थापना कर आप तक्षशिला गये। यहाँ बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ कर अपना अद्वेत मत प्रस्थापित किया। तक्षशिला से कश्मीर आए, श्रीनगर का शारदा मंदिर जो सर्वज्ञ पीठ के नाम से विख्यात था। युगों-युगों से शारदा के मंदिर में कोई प्रवेश नहीं कर सका था। प्राचीन काल से वहाँ रखे श्रीचक्र युक्त पत्थर की पूजा होती थी। कर्मकांड़ी शाक्त वहाँ प्रति दिन नरबलि देते थे। यह सुन आचार्य शंकर के हृदय को तीव्र चोट पहुँची, उनहोंने उसी समय लोहे के घन से उस शिला को ही तोड़ डाला जिस पर नरबलि दी जाती थी। उन्होंने शास्त्रार्थ के लिए सबको ललकारा परन्तु कोई भी शाक्त पंडित उनके सामने टिक नहीं पाया। उसी दिन से उन्होंने नरमेधप्रथा बंद करवा दी।
तत्पश्चात आचार्य शंकर ने शारदा मंदिर के दक्षिणी द्वार से प्रवेश किया और सर्वज्ञपीठ पर विराजित हुए। उसी सर्वज्ञ पीठ से अपने अद्वेत मत का जयघोष किया। अब वे आचार्य शंकर से जगद्गुरु शंकराचार्य बन गये। आओ! हम सब उनके आचार्यत्व से प्रेरणा लेकर दूषित ज्ञान क्षेत्र को फिर से परिष्कृत करने का संकल्प लें।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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