– वासुदेव प्रजापति
भिक्षा नाम सुनते ही हमारे मन में हेय भाव आता है। क्यों? इसलिए कि भिक्षा मांगने वाला बिना किसी मेहनत के और बिना किसी अधिकार के मुफ्त में कुछ प्राप्त करना चाहता है। मुफ्त में प्राप्त करने वाले को हम भिखारी कहते हैं। भिखारी का हमारे समाज में बहुत निम्न स्थान है। उसे किसी भी प्रकार की प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है अपितु सब लोग उसे तिरस्कार पूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं और वैसा ही उसके साथ व्यवहार भी करते हैं।
हमारे यहाँ पर दो शब्द हैं, एक है भिक्षा और दूसरा है, भिक्षावृत्ति। भिक्षावृत्ति को हम भीख मांगना कहते हैं। भिखारी भीख मांग कर अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करता है, इसे ही भिक्षावृत्ति कहते है। हमारे देश में भिक्षा को वृत्ति के रूप में अपनाना निकृष्ट कार्य माना जाता है, कहा भी है-
मांगन मरण समान है मत कोई मांगों भीख।
मांगन ते मरना भला यह सतगुरु की सीख।।
अर्थात मांगना मरने के समान है, इसलिए किसी को भी भीख नहीं मांगनी चाहिए। मांगने से तो मरना श्रेष्ठ है, ऐसी शिक्षा हमें सद्गुरु देते हैं।
हमने अज्ञानवश भिक्षा को भिक्षावृत्ति का पर्याय मान लिया है, जो गलत है। हमारे यहाँ भिक्षा एक श्रेष्ठ कर्म है। यह कर्म हमारे साधु- संन्यासी और विद्या प्राप्त करने वाले ब्रह्मचारी का कर्म है। भिक्षा को मधुकरी व गोचरी भी कहते हैं। पढ़ने वाला ब्रह्मचारी भिक्षावृत्ति नहीं करता, वह मधुकरी करता है। वह तो गुरुकुल की अर्थ निरपेक्ष शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अपने कर्तव्य का पालन करता है। हमारे यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में साधु-संन्यासी और ब्रह्मचारी का भरण पोषण करना समाज का दायित्व है। समाज भिक्षा देकर इनके भरण पोषण का दायित्व पूर्ण करता है। जिनके घर साधु-संन्यासी या ब्रह्मचारी भिक्षा लेने के लिए आते हैं, वह परिवार अपने आपको धन्य मानता है। मेरे अहो भाग्य! जो आज मेरे घर साधु महाराज या ब्रह्मचारी भिक्षा लेने आए हैं। अर्थात् भिक्षा लेना और देना एक श्रेष्ठ कर्म है, जबकि भिक्षावृत्ति एक निकृष्ट कर्म है। अतः हमें इन दोनों शब्दों के सूक्ष्म अंतर को समझ कर व्यवहार करना चाहिए। आज हम भिक्षा या मधुकरी को ब्रह्मचारी के कर्तव्य रूप में समझने का प्रयत्न करेंगे।
भिक्षा ब्रह्मचारी का कर्तव्य और गृहस्थी का दायित्व है
हमारे देश में सामाजिक व्यवस्थाएं समाज के सभी वर्गों को ध्यान में रखते हुए सब के विकास हेतु बनी हुई हैं। अन्य देशों में ऐसी व्यवस्थाएं देखने को नहीं मिलती, उन्हीं में से एक है- ‘भिक्षा व्यवस्था’। समाज जीवन को सुव्यवस्थित चलाने के लिए हमारे यहाँ आश्रम व्यवस्था बनी। चार आश्रम बने – ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। इन चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम को शेष तीनों आश्रमों के भरण पोषण का दायित्व दिया गया है। क्योंकि इन तीनों ही आश्रमों के लोग गृह त्यागी हैं, इसलिए गृहस्थी अपने व अपने परिवार के भरण पोषण के साथ-साथ ब्रह्मचारियों का, वानप्रस्थियों का और संन्यासियों का भी भरण पोषण करता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत ही एक गृहस्थी गुरुकुल में पढ़ने वाले ब्रह्मचारी को भिक्षा देना अपना दायित्व मानता है तथा एक ब्रह्मचारी गृहस्थी से भिक्षा प्राप्त करना अपना अधिकार मानता है। इस प्रकार ब्रह्मचारी और गृहस्थी दोनों ही अपने कर्तव्य और दायित्व को पूर्ण करते हैं।
भिक्षा ब्रह्मचारी को समाज से जोड़े रखती है
आज का विद्यार्थी घर में रहते हुए विद्यालय जाकर शिक्षा प्राप्त करता है। किंतु प्राचीन काल में विद्यार्थी गृह त्याग कर गुरुकुल में ही निवास करते हुए शिक्षा प्राप्त करता था। शिक्षा पूर्ण होने पर ही वह पुनः लौट कर अपने घर आता था। ये गुरुकुल गाँव या नगर से दूर वनांचल में होते थे। नगर से दूर होने के कारण सामान्यतया इनका ग्राम या नगर के लोगों से सीधा संबंध नहीं रहता था। सभी ब्रह्मचारी गुरुकुल में रहते हुए भी नगर से जुड़े रहें इसलिए उन्हें भिक्षाटन के लिए भेजा जाता था। प्रतिदिन नगर में जाकर आने से वह नगर की गतिविधियों से तथा परिवार के लोगों के रहन-सहन तथा उनकी आर्थिक स्थिति से परिचित होते थे। उन्हें यह भी बोध होता रहता था कि मैं भी इसी समाज का एक घटक हूँ तथा शिक्षा प्राप्ति के बाद मुझे भी इसी समाज में रहते हुए अपना जीवन जीना है। इस प्रकार भिक्षाटन के द्वारा ब्रह्मचारी नगर व समाज से जुड़ा रहता था और सब प्रकार की गतिविधियों से परिचित होता रहता था।
भिक्षा ब्रह्मचारी को मर्यादा सिखाती है
भिक्षाटन में ब्रह्मचारी नगर में जाता था नगर के निश्चित घरों में जाकर वह भिक्षा मांगता था। भिक्षा लाकर अपने गुरु को देता था। भिक्षा लाने का कार्य भले ही शिष्य करते थे परन्तु भिक्षा पर अधिकार गुरु का होता था। शिष्य कभी भी मार्ग में अपनी लाई हुई भिक्षा को नहीं खाते थे। गुरु सबकी भिक्षा को सम्मिलित कर उसमें से सब ब्रह्मचारियों को कुछ अंश खाने के लिए देते थे। गुरु कभी भी अधिक लाने वाले को अधिक और कम लाने वाले को कम नहीं देते थे। यह भी आवश्यक नहीं था कि मिठाई लाने वाले को मिठाई मिलेगी, गुरु ने जो दे दिया उसे प्रसाद मानकर विद्यार्थी सहर्ष खाते थे। अतः ब्रह्मचारी भिक्षा मांगना अपना कर्तव्य मानता था।
इस कर्तव्य में वह अपनी मर्यादा का सदैव ध्यान रखता था। भिक्षा में अनेक विधि-निषेध गुरु उसे बताते थे, जिसका वह पूर्ण पालन करता था। जैसे प्रतिदिन अलग-अलग घरों से भिक्षा मांगना अपने परिचित या रिश्तेदारों के घर से भिक्षा नहीं लाना। अन्नसत्रों से भी भिक्षा प्राप्त नहीं करना। जहाँ अच्छा भोजन मिलता है केवल वहीं नहीं जाना। भिक्षा लेते समय मुझे यह चाहिए यह नहीं चाहिए ऐसा नहीं कहना, गृहिणी जो दे उसे सहर्ष स्वीकार करना। मिली हुई भिक्षा के प्रति अरुचि, नाराजगी या असंतोष नहीं दर्शना जैसी ऐसी अनेक बातें गुरु उन्हें मर्यादा के रूप में बताते थे जिनका पालन ब्रह्मचारी अक्षरश: करते थे। इस प्रकार भिक्षा के माध्यम से ब्रह्मचारी अनेक प्रकार की मर्यादाएं सीखते थे।
भिक्षा से ब्रह्मचारी को चरित्र की शिक्षा मिलती है
भिक्षा मांगना ब्रह्मचारी का नैतिक अधिकार है, कानूनी नहीं। भिक्षा मांगने की पात्रता सद्गुण, सदाचार, संयम, विनय और शील से आती है। ब्रह्मचारी को भिक्षा हेतु घर-घर जाना पड़ता है, परिणामस्वरूप उसका समाज से संपर्क बना रहता है। सम्पर्क से मानव स्वभाव, समाज की स्थिति, व्यवहार की जटिलता आदि बातें उसे सामाजिकता सिखाती है। इसी प्रकार ब्रह्मचारी को भोजन हेतु समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। संपन्न परिवार के ब्रह्मचारी को भी घर-घर जाकर भिक्षा मांगना अनिवार्य था। राजकुमार भी गरीब विद्यार्थी के साथ भिक्षाटन को जाते थे। भिक्षा मांगने से राजकुमार व धनिक विद्यार्थी का जहाँ अहंकार विगलित होता था वहीं गरीब घर से आने वाले ब्रह्मचारी में हीनता भाव नहीं आता था। अर्थात् भिक्षा ब्रह्मचारी के चरित्र निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाती थीं।
भिक्षा समाज को दायित्व बोध सिखाती है
भिक्षा ब्रह्मचारी को जहाँ सामाजिकता सिखाती है वहीं समाज को भी दायित्व बोध करवाती है। समाज भी अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारी और विद्या संस्था के प्रति अपना दायित्व समझता है। भिक्षा समाज से मिलती है इसलिए विद्या संस्था समाज की ऋणी रहती है और अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए सदैव तत्पर रहती है। दूसरी ओर विद्या संस्था समाज को शिक्षित और संस्कारित नागरिक देती है। यह समाज पर बहुत बड़ा उपकार है, इसका बोध समाज को भी होता है। इसलिए उस विद्या संस्था का पोषण करने का दायित्व समाज का है, इसका बोध समाज को बना रहता है। ब्रह्मचारी और समाज दोनों इस राष्ट्र के घटक हैं और दोनों परस्पर पूरक हैं। दोनों परस्पर पूरक बने रहकर ही राष्ट्र की उन्नति में सहभागी हो सकते हैं। यह परस्पर पूरकता बनाए रखने में भिक्षा महती भूमिका निभाती है।
भिक्षा अर्थ निरपेक्ष शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है
गुरुकुल की सब प्रकार की व्यवस्था को पूर्ण करने का दायित्व गुरु का होता है, गुरु अपना दायित्व पूर्ण करते हैं। हम सभी जानते हैं कि उस समय विद्यादान का कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, गुरुकुल चलाने के लिए अनुदान भी नहीं लिया करते थे, क्योंकि अनुदान की शर्तों के कारण गुरुकुल की स्वतंत्रता और स्वायत्तता दोनों का लोप हो जाता है। दूसरा गुरुकुल समाज को शिक्षित और संस्कारित नागरिक देता है इसलिए समाज की सहभागिता भी अपेक्षित रहती है। समाज उस अपेक्षा को भिक्षा के रूप में पूर्ण करता है। गुरु के लिए ब्रह्मचारियों के भोजन का खर्चा सबसे बड़ा चिंता का कारण होता है, अतः इस कारण को समाज भिक्षा देकर बड़ी सरलता से पूर्ण कर लेता है। इतनी बड़ी व्यवस्था ‘हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चोखा’ कहावत की भांति ब्रह्माचारियों व गृहस्थियों के सहभाग से दूर हो जाती है और दोनों शिक्षित भी होते जाते हैं। अर्थात भिक्षा केवल अर्थ निरपेक्ष शिक्षा की व्यवस्था भी नहीं करती अपितु ‘एक पंथ दो काज’ को भी चरितार्थ करती है।
वैसे आज भी सभी शिक्षा संस्थान किसी न किसी रूप में भिक्षा लेते ही हैं। अपने विद्यालय के भवन, समाज से आर्थिक सहयोग लेकर बनाते हैं। कंप्यूटर, प्रयोगशाला के उपकरण, पानी की मशीन जैसे संसाधन समाज से मांगकर ही लेते हैं। भले ही हम इस प्रकार से मांगने को सहयोग कहते हैं, परन्तु है तो यह भिक्षा। मांगकर प्राप्त किया हुआ किसी भी प्रकार का सहयोग भिक्षा ही है। यदि यह कहा जाय कि भिक्षा का आधुनिक नाम आर्थिक सहयोग है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जैसे आर्थिक सहयोग लेना व देना सम्मानजनक कार्य है, वैसे ही भिक्षा लेना व देना भी सम्मानजनक कार्य है। अतः भिक्षा के प्रति हमारे मनों में जो गलत धारणा बनी हुई है, हमें उसे निर्मूल कर देना चाहिए।
आज हम समर्थ गुरु रामदास को मिली भिक्षा से संबंधित एक प्रेरक संस्मरण का स्मरण करेंगे।
भिक्षा से मन निर्मल
समर्थ गुरु रामदास श्रीराम के दर्शन करने लालसा लिए एक दिन घर से निकल पड़े। नासिक के पास पंचवटी के निकट टाकली नामक स्थान पर आए। टाकली में वे एक गुफा में रहते थे। वहां उन्होंने ‘श्री राम जय राम जय जय राम’ नामक त्रयोदशाक्षरी श्रीराम मंत्र का 13 कोटी जप का संकल्प लिया। वह संकल्प उन्होंने 12 वर्षों में पूर्ण किया। वे प्रतिदिन नदी के जल में निश्चल खड़े रहकर इस मंत्र का जप करते। दोपहर में टाकली गाँव जाते और मधुकरी मांग कर लाते, फिर गोदावरी के किनारे बैठकर अन्न ग्रहण करते थे। टाकली में जब वे त्रयोदशाक्षर राम मंत्र का पुरश्चरण कर रहे थे, उस समय की यह कथा है।
एक दिन वे मधुकरी के लिए टाकली गाँव में गए। एक घर के सामने जाकर उन्होंने भिक्षा के लिए आवाज लगाई – ‘ओम् भवती भिक्षाम् देहि।’ उस घर की गृहिणी घर में चल रहे झगड़ों से परेशान थी। वह क्रोध से भरी हुई थी और घर में पोछा लगा रही थी। ऐसे समय में उसने ‘ओम् भवती भिक्षाम् देहि’ की आवाज सुनी तो गुस्से से बोली कोई भिक्षा नहीं है, जाओ आगे जाओ। संत रामदास शांत भाव से खड़े रहे और थोड़ी देर बाद फिर से आवाज लगाई- ‘ओम् भवती भिक्षाम् देहि।’ महिला गुस्से में तो थी ही दोबारा आवाज सुनकर वह और अधिक गुस्से से भर गई। उसके हाथ में पोछा लगाने वाला गीला कपड़ा था, उसे लिए-लिए वह दरवाजे की ओर बढ़ी और चिल्लाते हुए वह कपड़ा स्वामी रामदास के हाथ में फेंका और जोर से बोली, लो यह लो भिक्षा।
रामदास स्वामी जान गये कि उसने क्रोध के वशीभूत ऐसी भिक्षा दी है। भिक्षा का यह नियम है कि भिक्षा में जो भी दिया जाय उसे ले लेना चाहिए। अतः उन्होंने वह पोछा ले लिया। उन्होंने महिला पर तनिक भी क्रोध नहीं किया, बल्कि उसके क्रोध को मिटाने का उपाय सोचने लगे। वे उस पोंछे को लेकर सीधे नदी पर आए। उस पोछे को अच्छी तरह धोया, उसका सारा मैल निकाला तो कपड़ा निर्मल हो गया। अब उस निर्मल कपड़े से उन्होंने दीपक की बातियां बनाई और प्रतिदिन एक एक बाती वे जलाते रहे। इधर वह बाती जलती उधर उस महिला के मन का मैल नष्ट होता जाता। जब सारी की सारी बातियां जल गई तो उस महिला का मन भी निर्मल हो गया। अब उसे बहुत अधिक पश्चाताप हुआ कि मैंने गुस्से में आकर एक संन्यासी को भिक्षा में पोछा दे दिया, एक संन्यासी पर क्रोध किया, इससे निकृष्ट कार्य और क्या होगा? अब मैं उनसे क्षमा मांगूंगी और प्रायश्चित करूंगी। इस प्रकार भिक्षा में अखाद्य वस्तु देने पर भी समर्थ गुरु रामदास स्वामी की तपस्या से और ‘सर्व भूत हितेरता:’ की भावना से एक गृहिणी का मन निर्मल हो गया।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)